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जैसा कि बाह्य स्नान के लिए एक जलाशय होता है इसी प्रकार आन्तरिक स्नान के लिए अहिंसा-धर्म रूप जलाशय है जो कि कर्म-रूप मल को दूर करने में समर्थ है। जिस प्रकार तालाब में सोपानादिक होते हैं, उसी प्रकार अहिंसा धर्मरूपी तालाब के ब्रह्मचर्य आदि रूपी तीर्थ अर्थात् सोपान हैं, यह तीर्थ कर्मरूप मल को जड़ से दूर करने में तथा मिथ्यात्वादि कालुष्यों से रहित होने से आत्मा की प्रसन्न लेश्या के सम्पादन में समर्थ है। अतः सिद्ध हुआ कि ब्रह्मचर्य और शान्ति ये दोनों धर्मरूप तालाब के सुदृढ़ तीर्थ अर्थात् सोपान हैं। सो इस प्रकार के धर्म-रूपी जलाशय में स्नान करने पर आत्मा निर्मल-कर्म अर्थात् मलों से रहित होकर निष्कलंक हो जाता है। जिस प्रकार कषाय-रूप ताप से रहित होकर अत्यन्त शीतलता को प्राप्त हुआ मैं दोषों को त्याग रहा हूं, उसी प्रकार तुमको भी कर्मरूप मल से रहित होने का प्रयत्न करना चाहिए।
४५ वीं और ४६वीं गाथा में आए हुए प्रश्नोत्तरों की तालिका इस प्रकार समझनी चाहिएप्रश्न-स्नान के लिए जलाशय कौन सा है? उत्तर—अहिंसारूप धर्म। प्रश्न—उस जलाशय का तीर्थ-सोपान कौन सा है? उत्तर - ब्रह्मचर्य और शांति। प्रश्न—किसमें स्नान करने से कर्म-रज दूर होता है? उत्तर—उक्त तीर्थ में स्नान करने से कर्ममल से रहित हुआ यह आत्मा प्रसन्न लेश्या वाला होता है। प्रश्न—क्या इस जलाशय में स्नान करने से आत्मा निर्मल अर्थात् शुद्ध हो जाता है? उत्तर—हां, इसी जलाशय में स्नान करने से आत्मा कर्ममल से रहित होकर विशुद्ध हो जाता है। प्रश्न—आप किस जलाशय में स्नान करके परमशांति को प्राप्त होते हुए कर्ममल को छोड़ते हैं?
उत्तर—मैं उक्त धर्म रूप जलाशय में स्नान करके अत्यन्त शांति को प्राप्त होता हुआ कर्मरज को दूर करता हूं।
प्रश्न हम किस जलाशय में स्नान करें? उत्तर-तुम भी इसी जलाशय में स्नान करके कर्म-मल से रहित होने का प्रयत्न करो।
एयं सिणाणं कुसलेहिं दिटुं, महासिणाणं इसिणं पसत्थं । जहिं सिणाया विमला विसुद्धा, महारिसी उत्तम ठाण पत्ते ॥ ४७॥
त्ति बेमि । ' . इति हरिएसिज्जं अज्झयणं समत्तं ॥ १२ ॥ एतत्स्नानं कुशलैर्दृष्टं, महास्नानमृषीणां - प्रशस्तम् । यस्मिन्स्नाता विमला विशुद्धाः, महर्षय उत्तमं स्थान प्राप्ताः || ४७ ॥
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श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 445 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं
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