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________________ अपमानित हो जाआगे, इसको कष्ट देते हुए 'स्वयं कष्ट में पड़ोगे'। सारांश यह है कि इसमें मुनि का तो कुछ बिगड़ेगा नहीं, जो कुछ भी अहित होगा वह सब तुम्हारा ही होगा। भद्रा ने फिर कहा कि आसीविसो उग्गतवो महेसी, घोरव्वओ घोरपरक्कमो य । . अगणिं व पक्खंद पयंगसेणा, जे भिक्खुयं भत्तकाले वहेह॥२७॥ आशीविष उग्रतपा महर्षिः, घोरव्रतो घोरपराक्रमश्च । 'अग्निमिव प्रस्कन्दथ पतंगसेना, ये भिक्षुकं भक्तकाले व्यथयथ ॥२७॥ पदार्थान्वयः आसीविसो—आशीविष लब्धि वाला, उग्गतवो—कठोर तप करने वाला, महेसी—महर्षि है, घोरव्वओ-घोर व्रतों के पालन करने वाला, य-और, घोरपरक्कमो घोर पराक्रम करने वाला है, व—जैसे, अगणिं—आग में, पयंगसेणा–पतंगों की सेना, पक्खंद—पड़ती है—उसी प्रकार तुम भी, जे–जो, भिक्खुयं भिक्षु को, भत्तकाले–भोजन काल में, वहेह—मारते हो। मूलार्थ यह मुनि आशीविष लब्धि वाला है, घोर व्रतों का आचरण करने वाला है तथा घोर पराक्रमी है, अतः जैसे पतंगों की सेना आग में पड़कर उसको बुझाना चाहती है, ठीक उसी प्रकार भोजन-काल में उपस्थित हुए इस भिक्षु को अभिहनन करते हुए तुम भी पतंगों की तरह ही आचरण कर रहे हो। . टीका भद्रा ने कहा कि यह मुनि आशीविष-लब्धि से युक्त है, अर्थात् जैसे आशीविष नाम का . सर्प महाभयंकर होता है, उसी प्रकार यह मुनि भी लब्धि-सम्पन्न होने से शाप देने तथा अनुग्रह करने में समर्थ है। यह उग्र तपस्वी घोर व्रतों का आचरण करने वाला पराक्रमशाली है। इस प्रकार के महातपस्वी को जो कि आप लोगों के पुण्य के उदय से भिक्षा के लिए इस यज्ञ-मण्डप में उपस्थित हुआ है आप लोग उसे मारने के लिए उद्यत हो गए हैं, आप लोगों का यह उद्योग वैसा ही है जैसा कि पतंगों की सेना द्वारा अग्नि में कूदकर उसको बुझाने के लिए प्रयत्न करना। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार पतंगे अग्नि में गिरकर उसको बुझाने के बदले स्वयं ही जलकर भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार यदि आप लोग इस मुनि को मारोगे तो स्वयं ही नष्ट हो जाओगे। प्रस्तुत गाथा में जो भोजन-काल का उल्लेख किया गया है उसका तात्पर्य यह है कि इस समय पर तो चाहे कोई भी व्यक्ति उपस्थित हो, उसको भी दान देना प्रत्येक गृहस्थ का मुख्य कर्तव्य है, फिर ऐसे गुण-सम्पन्न तपस्वी मुनि का तो जितना हो सके उतना सत्कार करना चाहिए । अब भद्रा इस विषय में उनके कर्त्तव्य को बताती हुई कहती हैसीसेण एवं सरणं उवेह, समागया सव्वजणेण तुब्भे । जइ इच्छह जीवियं वा धणं वा, लोगंपि एसो कुविओ डहेज्जा ॥२८॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 429 । हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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