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________________ शीर्षेणैनं शरणमुपेत्, समागताः सर्वजनेन यूयम् । यदीच्छथ जीवितं वा धनं वा, लोकमप्येष कुपितो दहेत् || २८|| पदार्थान्वयः—सीसेण—मस्तक से, एयं—इस मुनि की, सरणं—शरण, उवेह—ग्रहण करो, समागया—एकत्रित होकर, सव्वजणेण सर्व जनों के साथ, तुब्भे तुम, जइ–यदि, इच्छह–चाहते • हो, जीवियं—जीवन को, वा—अथवा, धणं-धन को, लोगंपि—लोक को भी, एसो—यह, कुविओ—कुपित होने पर, डहेज्जा—दग्ध करने में समर्थ है। मूलार्थ—यदि तुम अपने जीवन और धन की रक्षा करना चाहते हो तो आप सभी लोग इकट्ठे होकर मस्तक झुकाकर इस मुनि की शरण ग्रहण करो, अर्थात् इनके चरणों में गिरकर इनसे क्षमा मांगो, क्योंकि यह मुनि कुपित होने पर सारे लोक को भस्म कर देने की शक्ति रखने वाला है। टीका—इसके अनन्तर पुरोहित सोमदेव की धर्मपत्नी भद्रा ने उन अध्यापकों से यह कहा कि तुम सब लोग मिलकर इस मुनि की शरण ग्रहण करो, अन्यथा आपकी रक्षा का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि कुपित हुआ यह मुनि आपको तो क्या, समस्त लोक को भी भस्म कर देने में समर्थ है, अतः सर्व प्रकार के गर्व का परित्याग करके तुम्हारे लिए इस मुनि की शरण में उपस्थित होना ही परम कल्याणकारी है। भद्रा के कथन का आन्तरिक रहस्य तो यह है कि यह मुनि शान्ति का अगाध समुद्र है, परम निस्पृह है, इसलिए इसकी शरण में जाने से तुम्हारे जीवन और धन की रक्षा होने के अतिरिक्त तुमको परम शान्ति और अभीष्ट-सिद्धि का भी लाभ होगा। इसके अनन्तर मुनि को मारने के लिए दौड़कर गए हुए उन विद्यार्थियों की जो दशा उस समय यक्ष के कोप द्वारा हो रही थी, अब शास्त्रकार उसका वर्णन करते हैं अवहेडियपिट्ठिसउत्तमंगे, पसारिया बाहु अकम्मचेढे । निब्भेरियच्छे रुहिरं वमंते, उड्ढंमुहे निग्गयजीहनेत्ते ॥ २६ ॥ अबाधः कृतपृष्ठि सोत्तमाङ्गान् प्रसारितबाहूनकर्मचेष्टान् । प्रसारिताक्षान् रुधिरं वमतः, ऊर्ध्वमुखान्निर्गतजिह्वानेत्रान् ॥ २६ ॥ पदार्थान्वयः–अवहेडिय-नीचे गिरा हुआ है, पिट्ठि—पीठ पर्यन्त, सउत्तमंगे—मस्तक जिनका, पसारिया–पसारी हुई, बाहु–भुजाएं, अकम्मचेढे-क्रिया रहित हैं चेष्टाएं जिनकी, निब्भेरियच्छे—पसारी हुई आंखों वाले, रुहिरं-रुधिर को, वमंते—वमते हुए, उड्ढंमुहे—मुख जिनका ऊंचा हो रहा है, निग्गय—निकली हुई हैं, जीहनेते जिह्वा और आंखें जिनकी। मूलार्थ नीचे गिरे हुए मस्तक, पीठ की तरफ पसारी हुई भुजाएं, चेष्टाओं से रहित शरीर और फटी हुई आंखों वाले कुमारों के मुख से रुधिर निकल रहा है, उनका मुख ऊपर की ओर हो रहा है, जिह्वा तथा आंखें बाहर निकल रही हैं, इस प्रकार की दशा में उन कुमारों को अध्यापकों ने देखा। । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 430 । हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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