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ते—उन कुमारों को, भिन्नदेहे—भिन्न देह वालों को, रुहिरं–रुधिर, वमंते—वमन करते हुओं को, पासित्तु-देखकर, भद्दा-भद्रा, भुज्जो–फिर, इणमाहु-इस प्रकार कहने लगी।
मूलार्थ तब अन्तरिक्ष अर्थात् आकाश में ठहरे हुए भयानक रूप वाले वे यक्ष असुरों का रूप धारण करके उन कुमारों को ताड़ने लगे और उनकी ताड़ना से शरीर में भेद होने पर वे कुमार रुधिर का वमन करने लगे, अर्थात् उनके शरीर से रुधिर टपकने लगा, उन की यह शोचनीय दशा देखकर सोमदेव की पत्नी राजकमारी भद्रा फिर कहने लगी।
टीका—मुनि की सेवा में सतत रहने वाले उस यक्ष ने आकाश में बड़े भयंकर रूप को धारण करके मुनि को मारने वाले उन छात्रों की भी खूब ताड़ना की, उनके शरीरों को विदीर्ण कर दिया अतः उनके मुख से रुधिर गिरने लगा। कुमारों की इस दशा को देखकर राजकुमारी भद्रा फिर इस प्रकार निम्नलिखित वचन कहने लगी। यहां पर 'आहु' और 'जणं' में प्राकृत व्याकरण के नियमानुसार वचन-व्यत्यय किया गया। भद्रा ने जो कुछ कहा अब उसी का वर्णन करते हैं
गिरिं नहेहिं खणह, अयं दंतेहिं खायह । जायतेयं पाएहिं हणह, जे भिक्खं अवमन्नह ॥२६॥
गिरि नखैः खनथ, अयो दन्तैः खादथ ।
जाततेजसं पादैर्हनथ, ये भिक्षुमवमन्यध्वे || २६ ॥ पदार्थान्वयः–गिरि पर्वत को, नहेहिं—नखों से, 'खणह–खोदते हो, अयं लोहे को, दंतेहिं—दान्तों से, खायह—खाते हो, जायतेयं—अग्नि को, पाएहिं—पैरों से, हणह—हनते हो—बुझाते हो, जे–जो तुम, भिक्खुं—भिक्षु का, अवमन्नह–अपमान करते हो ।
मूलार्थ—पर्वत को नखों से खोदते हो, लोहे को दान्तों से खाते हो और आग को पैरों से बुझाते हो जो कि तुम इस भिक्षु का अपमान करते हो।
टीका—इस गाथा में 'इव' शब्द का सर्वत्र अध्याहार कर लेना चाहिए। भद्रा के कथन का तात्पर्य यह है कि जैसे कोई व्यक्ति अपने नखों से पर्वत.को खोदने की इच्छा रखता हुआ अपने इस कार्य में सफल नहीं हो सकता, जैसे लोहे को दान्तों से चबाया नहीं जा सकता और जैसे देदीप्यमान अग्नि को पैरों से बुझाना भी अत्यन्त कठिन है, इसी प्रकार इस भिक्षु का अपमान करना भी दुःशक्य है। तात्पर्य यह है कि तुम लोग इस भिक्षु का कभी अपमान नहीं कर सकते ।
इसके अतिरिक्त भद्रा के कहने का यह भी अभिप्राय है कि जैसे नखों से पर्वत तो नहीं खुद पाता, अपितु खोदने वाले के नख ही नष्ट हो जाते हैं, लोहा दान्तों से तो चबाया नहीं जा सकता, किन्तु चबाने का प्रयास करने वाले के दान्त ही टूट जाते हैं एवं पैरों से अग्नि की ज्वाला शान्त होने के बदले पैरों को ही जला देती है, उसी प्रकार तुम लोग इस मुनि का अपमान करते हुए स्वयं ही
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 428 | हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं