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पूर्व संस्करण से
स्वाध्याय
जैन धर्म दिवाकर, उत्तर भारतीय प्रवर्त्तक, उपाध्याय श्रमण श्री फूलचन्द्र जी म०
आत्मा स्वाध्याय के द्वारा आत्म-विकास कर सकता है, परन्तु स्वाध्याय विधि पूर्वक चाहिए। यदि विधिशून्य स्वाध्याय किया जाएगा तो वह आत्म - विकास करने में समर्थ नहीं हो सकेगा, क्योंकि विधि पूर्वक किया हुआ स्वाध्याय ही स्वाध्याय है।
स्वाध्याय का फल
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि स्वाध्याय करने से किस फल की प्राप्ति होती है ? इसका उत्तर इसी ग्रन्थ के २६वें अध्ययन में प्रश्नोत्तर रूप में इस प्रकार दिया गया है कि
“सज्झाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ" ? "सज्झाएणं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ' ।
उत्तराध्ययन अ० २६, सू० १८
अर्थात् हे भगवन् ! स्वाध्याय करने से किस फल की प्राप्ति होती है ?
भगवान् कहते हैं कि—‘हे शिष्य ! स्वाध्याय करने से ज्ञानावरणीय कर्म क्षीण हो जाते हैं। जब ज्ञानावरणीय कर्म ही क्षीण हो गए तो आत्म-विकास स्वयमेव हो जाएगा, जिससे कि आत्मा अपने स्वरूप में प्रविष्ट हो जाने के कारण सब दुःखों से छूट जाएगा। क्योंकि—
"सज्झाए वा सव्वदुक्खविमोक्खणे" (उत्त० अ० २६, गा० १०)
अर्थात् स्वाध्याय सब दुःखों विमुक्त करने वाला है।
शारीरिक और मानसिक दुःखों का उद्भव अज्ञानता से ही होता है। जब अज्ञानता नष्ट हो गई, तब वे दुःख भी स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं। क्योंकि—
"दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो" (उत्त अ० ३२, गा० ८)
अर्थात् जिसको मोह नहीं होता, मानो उसने दुःखों का भी नाश कर दिया, अतः सब प्रकार के दुःखों से छूटने के लिए स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए ।
स्वाध्याय किन-किन ग्रन्थों का करना चाहिए ?
स्वाध्याय उन्हीं ग्रन्थों का करना चाहिए जो सर्वज्ञ-प्रणीत, सत्य पदार्थों के प्रदर्शक, इहलौकिक और पारलौकिक शिक्षाओं से युक्त, उभयलोकों के हितोपदेष्टा तथा जिनके स्वाध्याय से तप, क्षमा और अहिंसा आदि तत्त्वों की प्राप्ति हो । तात्पर्य यह है कि जिनके स्वाध्याय से आत्मा ज्ञानी और
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 40 / स्वाध्याय