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चारित्र-युक्त एवं.आदर्शरूप बन सके, वे ही आगम स्वाध्याय करने योग्य हैं। उन्हीं के स्वाध्याय से आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सकता है।
किन्तु प्रत्येक मतावलम्बी अपने आगमों को सर्वज्ञ-प्रणीत मानता है, फिर इस बात का निर्णय कैसे हो कि अमुक आगम ही सर्वज्ञ-प्रणीत है, अन्य नहीं ?
इसका उत्तर यही है कि आगमों की परीक्षा के लिए मध्यस्थ भाव से प्रमाण और नय के जानने की आवश्यकता है। जो आगम प्रमाण और नय से बाधित न हो सकें वे ही प्रमाण कोटि में माने जा सकते हैं। जैसे कि कुछ व्यक्तियों ने अपने-अपने आगमों को अपौरुषेय (ईश्वरोक्त) माना है। उनका यह कथन प्रमाण-बाधित है, क्योंकि जब ईश्वर अकाय और अशरीरी है तो भला फिर वह वर्णात्मक-रूप छन्दों का किस प्रकार उच्चारण कर सकता है ? क्योंकि शरीर के बिना मुख नहीं होता और मुख के बिना वर्णों का उच्चारण नहीं हो सकता। अतः उनका यह कथन प्रमाण-बाधित सिद्ध हो जाता है। किन्तु जैनागम इस विषय को इस प्रकार प्रमाण-पूर्वक सिद्ध करते हैं, जिसे मानने में किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती और न ही किसी प्रकार की शंका ही उत्पन्न हो सकती है। उदाहरणार्थ-शब्द पौरुषेय है और अर्थ अपौरुषेय है, अर्थात् शब्द द्वारा सर्वज्ञ आत्माओं ने उन अर्थों का वर्णन किया जो कि अपौरुषेय हैं। कल्पना कीजिए कि सर्वज्ञ आत्मा ने वर्णन किया कि “आत्मा नित्य है" ये शब्द तो पौरुषेय हैं, किन्तु इन शब्दों द्वारा जिस द्रव्य का वर्णन किया गया है वह नित्य (अपौरुषेय) है। इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य के विषय में समझ लेना चाहिए। अतः सिद्ध हुआ कि सर्वज्ञ-प्रणीत आगमों का ही स्वाध्याय करना चाहिए। सर्वज्ञ-प्रणीत आगम कौन-कौन से हैं ?
वर्तमान काल में सर्वज्ञ-प्रणीत और सत्य पदार्थों के उपदेश करने वाले ३२ आगम ही प्रमाण-कोटि में माने जाते हैं। इन आगमों में पदार्थों का वर्णन प्रमाण और नय के आधार पर ही किया गया है। इनके अध्ययन से इन आगमों की सत्यता और इनके प्रणेता सर्वज्ञ या सर्वज्ञ-कल्प स्वतः ही सिद्ध हो जाते हैं।
वर्तमान काल में उपलब्ध ३२ आगम इस प्रकार हैं
“से किं तं सम्मसुअं ? जं इमं अरहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पण्ण-नाणदंसणधरेहिं तेलुक्क निरिक्खिअ-महिअ-पूइएहिं तीयपडुप्पण्ण-मणागय जाणएहिं सव्वण्णूहिं सव्वदरिसीहिं पणीअं दुवालसंगं गणिपिडगं तं जहा—१. आयारो, २. सूयगडो, ३. ठाणं, ४. समवाओ, ५. विवाहपण्णत्ती, ६. नायाधम्मकहाओ, ७. उवसगदसाओ, ८. अंतगडदसाओ, ६. अणुत्तरोववाइयदसाओ, १०. पण्हवागरणाई, १०. विवागसुअं, १२. दिट्ठिवाओ, इच्चेअं दुवालसंगं गणिपिडगं चोद्दस पुब्बिस्स सम्मसुअं, अभिण्ण दस पुस्विस्स सम्मसुअं, तेण परं भिण्णेसु भयणा, से तं सम्मसुअं।
१२. अंगशास्त्र, १२. उपांगशास्त्र, ४ मूलशास्त्र, ४ छेदशास्त्र और १ आवश्यक सूत्र । किन्तु ये
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 41 / स्वाध्याय