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________________ किए हुए यज्ञ से उत्तम लाभ प्राप्त करने के निमित्त सुपात्ररूप में अपने आपको उपस्थित करते हुए उनको सफल भिक्षा देने का उपदेश दिया है। __सारांश यह है कि यक्ष ने उन छात्रों से यह कहा कि मैं सुपात्रता के गुणों से युक्त हूं और तुम यज्ञ कर रहे हो, यज्ञ सुपात्रदान से ही सफल होता है, अतः सुपात्र को दान देकर तुम भी इस आरम्भ किए हुए यज्ञ को सफल कर लो। उक्त गाथा में आए हुए 'सुसमाहियस्स-गुत्तस्स' इत्यादि प्रयोगों में चतुर्थी विभक्ति के अर्थ में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग जानना चाहिए। छात्रों के प्रति कहे हुए यक्ष के इन वचनों को सुनकर उन छात्रों को उनके अध्यापकों ने जो कुछ कहा, अब उसका वर्णन किया जाता है के इत्थ खत्ता उवजोइया वा, अज्झावया वा सह खण्डिएहिं । एयं खु दण्डेण फलेण हन्ता, कण्ठम्मि घेत्तृण खलेज्ज जो णं ॥१८॥ केऽत्र क्षत्रा उपज्योतिषो वा, अध्यापका वा सह खण्डिकैः । ___ एनं खलु दण्डेन फलकेन हत्वा, कण्ठं गृहीत्वा स्खलयेयुः ये ॥ १८ ॥ पदार्थान्वयः—के—कौन, इत्थ—यहां पर, खत्ता—क्षत्रिय हैं, वा—अथवा, उवजोइया अग्नि के समीप बैठने वाले ब्राह्मण हैं, वा–अथवा, अज्झावया–अध्यापक, खंडिएहिं छात्रों के, सह—साथ हैं, एयं—इस मुनि को, दंडेण—दण्ड से, फलेण–बिल्वादि फलों से, हंता-मार कर, कण्ठम्मि—कंठ से, घेत्तूण—पकड़कर, खलेज्ज–निकाल देवें, जो–जो कोई समर्थ हों, णं-वाक्यालंकार में है, खु-वितर्क में है। मूलार्थ कौन हैं यहां पर क्षत्रिय या अग्नि के समीप बैठने वाले अथवा छात्रों के साथ रहने वाले अध्यापक जो कि इस मुनि को दंड अथवा बिल्वादि फलों से ताड़ना करके गले से पकड़कर बाहर निकाल दें ? ____टीका—इस गाथा में इस भाव को प्रकट किया गया है कि क्रोध के वशीभूत होकर योग्य मनुष्य भी अयोग्य काम करने को उद्यत हो जाता है, जैसे कि उस मुनि के उक्त वचनों को सुनकर क्रोध में आए हुए वे अध्यापक लोग साभिमान कहते हैं कि क्या यहां पर कोई क्षत्रिय अथवा अग्नि के समीप बैठने वाले ब्राह्मण छात्र या छात्रों के साथ आए हुए अध्यापकों में से ऐसा कोई है जो इस मुनि को दंडादि से ताड़न करता हुआ गले से पकड़कर इस यज्ञ-मंडप से बाहर निकाल दे? क्योंकि यह हमारे प्रतिकूल बोल रहा है। ★ 'फलएण' का संस्कृत रूप 'फलकेन' होता है। फलक का अर्थ संस्कृत कोषों के अनुसार लकड़ी की पट्टी अर्थात् तख्ती है, किन्तु यहां पर जो बिल्लवादि फल का अर्थ लिखा गया है वह प्राचीन संस्कृत टीका के आधार पर है। हमारी समझ में 'लकड़ी की पट्टी' अर्थ अधिक उपयुक्त है, क्योंकि लकड़ी की पट्टी तख्ती बाल-छात्रों के लिये पाठशालाओं में हर समय साथ रहती है। मूल गाथा में भी छात्रों की उपस्थिति का स्पष्ट उल्लेख है। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 422 | हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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