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इसका तात्पर्य यह है कि जब ये ब्राह्मण उस यक्ष के कथन का युक्ति युक्त प्रतिवाद करने को समर्थ न हो सके तब उन्होंने क्रोध में आकर उक्त मुनि का इस प्रकार से तिरस्कार करना चाहा । वास्तव में जो पुरुष किसी वाद-विवाद में निरुत्तर हो जाता है और उसका स्थान - बल अधिक होता है तब वह इसी प्रकार के अनुचित बर्ताव करने पर उतारू हो जाता है, क्योंकि उस समय बल-प्रयोग के सिवाय उसके पास और कुछ नहीं होता । योग्य और अयोग्य व्यक्ति में इतना ही अन्तर है कि योग्य व्यक्ति तो क्रोध के वशीभूत होते ही नहीं और अन्य लोग क्रोधावेश में आकर अनुचित काम करने पर उद्यत हो जाते हैं।
यहां पर ‘जो' शब्द वचन व्यत्यय से 'ये' के स्थान पर ग्रहण किया जाता है और 'तु' 'खु' के अर्थ में निश्चय का बोधक है।
अध्यापकों के उक्त वचनों को सुनकर वहां पर बैठे हुए छात्रों ने उस मुनि के साथ जो व्यवहार किया अब शास्त्रकार उसी का वर्णन करते हैं
अज्झावयाणं वयणं सुणेत्ता, उद्धाइया तत्थ बहू कुमारा । दण्डेहिं वित्तेहिं कंसेहिं चेव, समागया तं इसिं तालयन्ति ॥ १६ ॥ अध्यापकानां वचनं श्रुत्वा, उद्धावितास्तत्र बहवः कुमाराः । दण्डैर्वैत्रैः कशैश्चैव, समागतास्तमृषिं ताडयन्ति ॥ १६ ॥
पदार्थान्वयः – अज्झावयाणं – अध्यापकों के, वयणं - वचनों को, सुणेत्ता — सुनकर, उद्धाइया - वेग से भाग आए, तत्थ ——- जहां पर मुनि था वहां, बहू — बहुत, कुमारा – कुमार, दण्डेहिं दण्डों से, वित्तहिं—बैंतों से, कसेहिं — कोड़ों से, च- समुच्चयार्थक है, एव - पादपूर्त्यर्थ है, समागया—इकट्ठे मिलकर, तं-उस, इसि — मुनि को, तालयन्ति — मारने लगे ।
मूलार्थ —— अध्यापकों के वचनों को सुनकर बड़े वेग से दौड़ते हुए वे कुमार अर्थात् विद्यार्थी जहां पर मुनि खड़ा था, वहां पर आए और डण्डों, बैतों और कोड़ों आदि से उस मुनि को मारने लगे ।
टीका —– जिस समय अध्यापकों के उक्त वचनों को वहां पर बैठे हुए विद्यार्थियों ने सुना तब वे इकट्ठे होकर बड़े वेग से दौड़कर वहां पर आ गए जहां पर कि वह मुनि खड़ा था। तब अध्यापक लोगों के आदेशानुसार वे कुमार डण्डों, बैंतों और कोड़ों आदि से उस मुनि को मारने लगे । क्रोध के वशीभूत हुआ पुरुष क्या कुछ नहीं कर बैठता, क्रोधी पुरुष को कर्त्तव्याकर्त्तव्य का कुछ भी भान नहीं रह जाता, यही इस गाथा का फलितार्थ है ।
कुमारों के ताड़न करने पर फिर क्या हुआ, अब शास्त्रकार इसी विषय का वर्णन करते हैंरन्नो तहिं कोसलियस्स धूया, भद्द त्ति नामेण अणिन्दियंगी ।
तं पासिया संजय हम्ममाणं, कुद्धे कुमारे परिनिव्ववेइं ॥ २० ॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 423 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं