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हे निर्ग्रन्थ! तूं हमारे सामने हमारे ही अध्यापकों के प्रतिकूल भाषण क्यों कर रहा है? अर्थात् इनके विरुद्ध बोल रहा है। जाओ, भले ही यह प्रस्तुत अन्नादि पदार्थ सड़ जाए–नष्ट हो जाए, परन्तु हम तुमको नहीं देंगे।
छात्रों के इस कथन का अभिप्राय यह है कि यदि तुम हमारे गुरुजनों के विरुद्ध न बोलते तो संभव था कि हम तुम्हारे ऊपर कुछ दयाभाव लाकर तुमको कुछ भिक्षा दे भी देते, किन्तु अब तुम्हें यहां से अन्न-पानी की आशा रखनी व्यर्थ है।
इस गाथा में 'किं' शब्द आक्षेपार्थक है। वृत्तिकार ने 'तु' के स्थान में 'नु' का प्रयोग किया है और उसका अर्थ 'विचार' किया है। तब इसका भावार्थ यह हुआ कि विचार से देखा जाए तो तू क्षमा करने के योग्य भी नहीं है, कारण कि तू निन्दक है और निन्दक क्षमा के योग्य नहीं होता।
छात्रों के इन असभ्यतापूर्ण और तिरस्कार युक्त वचनों को सुनकर यक्ष ने उनके प्रति जो उत्तर दिया, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं
समिईहि मज्झं सुसमाहियस्स, गुत्तीहि गुत्तस्स जिइन्दियस्स । जइ मे न दाहित्थ अहेसणिज्जं, किमज्ज जन्नाण लहित्थ लाहं? ॥ १७॥ ___समितिभिर्मह्यं , सुसमाहिताय, गुप्तिभिर्गुप्ताय जितेन्द्रियाय । _____ यदि मह्यं न दास्यथाऽथैषणीयं; किमद्य यज्ञानां लप्स्यध्वे लाभम्? || १७ ॥
पदार्थान्वयः–समिईहि—समितियों से युक्त, मज्झं-मुझे, सुसमाहियस्स—सुन्दर समाधि वाले के लिए, गुत्तीहि-गुप्तियों से, गुत्तस्स—गुप्त के लिए, जिइन्दियस्स-जितेन्द्रिय के लिए, जइ–यदि, मे—मुझे, न दाहित्थ—न दोगे, अह—अब, एसणिज्जं–निर्दोष आहार को, किं—क्या, अज्ज-आज, जन्नाण-यज्ञों का, लहित्थ—प्राप्त करोगे, लाहं—लाभ। ___मूलार्थ—समितियों से समाहित, गुप्तियों से गुप्त और जितेन्द्रियता से सम्पन्न मुझे यदि तुम अब इस निर्दोष आहार को न दोगे तो आज इस यज्ञ के अनुष्ठान से आपको क्या लाभ प्राप्त होगा?
टीका—इस गाथा का भावार्थ यह है कि सुपात्र को ही दिया हुआ दान विशेष रूप से फलीभूत होता है, कुपात्र को नहीं। जैस मधु-घृत आदि पदार्थ किसी सुन्दर और स्वच्छ पात्र में डाले हुए ही सुरक्षित और अपने अविकृत रूप में रह सकते हैं, उसी प्रकार दिया हुआ दान भी सुपात्र में ही फलीभूत हो सकता है, अन्यत्र नहीं। इसी हेतु से ऊपर की गाथाओं में मुनि के द्वारा पात्रता के स्वरूप का वर्णन कराया गया है तथा इस गाथा में भी उसी को दोहराया गया है। जैसे कि
जो व्यक्ति पांचों समितियों से समाहित और तीनों गुप्तियों से गुप्त एवं इन्द्रियों का निग्रह करने वाला है वही सुपात्र है, इसलिए उक्त सद्गुणों वाला भिक्षु यदि किसी के घर में जाए तो अपना परम सौभाग्य समझकर उस योग्य अतिथि को श्रद्धापूर्वक भिक्षा देने का प्रयत्न करे, इसी से दाता को परम लाभ प्राप्त हो सकता है। इसी आशय को मन में रखकर ही उस यक्ष ने उन छात्रों के प्रति आरम्भ
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श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 421 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं