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________________ वास्तविक तात्पर्य को नहीं समझा, यदि तुमने वेदार्थ को यथार्थ रूप में समझा होता तो तुमको अपने ज्ञातव्य, मन्तव्य और निदिध्यासितव्य का भी यथार्थ ज्ञान होता, परन्तु वह तुममें दिखाई नहीं देता, इसीलिए तुम हिंसक यज्ञादि क्रियाओं में प्रवृत्त हो रहे हो! अन्यथा तुम्हारी प्रवृत्ति सात्त्विक होती। इससे प्रतीत होता है कि तुम लोग वास्तव में वेदों के ज्ञाता नहीं हो, किन्तु विद्वान् होते हुए भी तुम वास्तविक विद्या से विहीन हो। ऐसी स्थिति में आप लोगों को पुण्यरूप क्षेत्र मानना नितान्त असंगत है। इसके अतिरिक्त जो मुनि लोग उत्तम, मध्यम और हीन कुलों में भिक्षा के लिए भ्रमण करते हैं तथा पचन-पाचनादि व्यापारों से रहित हैं, वास्तव में वे ही उत्तम क्षेत्र हैं और उन्हीं को वेदविद् समझना चाहिए, क्योंकि शास्त्रों में मुनि की वृत्ति का इसी प्रकार से उल्लेख हुआ है। यथा 'चरेन्माधुकरी वृत्तिमपि म्लेच्छकुलादपि । एकानं नैव भुंजीत, बृहस्पतिसमादपि ॥' अर्थात् नीच कुल से तो भिक्षा लेकर निर्वाह कर ले, परन्तु एक घर से तो चाहे वह बृहस्पति के समान विद्वान् का ही घर क्यों न हो—यति कभी भी उस घर से अन्न ग्रहण न करे। इससे सिद्ध हुआ कि उत्तम क्षेत्र, संयमशील मुनि को ही कहा गया है, अथवा कहा जा सकता है। जब यक्ष ने उन ब्राह्मणों को इस प्रकार का उत्तर दिया, तब उस यज्ञशाला में बैठे हुए उन पंडितों के छात्रों ने उस यक्ष से जो कुछ कहा अब उसका दिग्दर्शन कराते हैं अज्झावयाणं पडिकूलभासी, पभाससे किं नु सगासि अम्हं? | . अवि एयं विणस्सउ अन्नपाणं, न य णं दाहामु तुमं नियण्ठा! ॥१६॥ अध्यापकानां प्रतिकूलभाषिन्, प्रभाषसे किं नु सकाशेऽस्माकम् । अप्येतद्विनश्यत्वन्नपानं, न च खलु दास्यामस्तुभ्यं निर्ग्रन्थ! || १६ ॥ पदार्थान्वयः-अज्झावयाणं-अध्यापकों के, पडिकूल-प्रतिकूल, भासी—भाषण करने वाला तू, अम्हं—हमारे, सगासि—सामने, पभाससे—बोलता है, किं—क्या, नु-वितर्क में, अविसम्भावना में है, एयं—यह प्रत्यक्ष, अन्नपाणं-अन्न और पानी, विणस्सउ विनष्ट हो जाए, न—नहीं, य–पुनः, णं—वाक्यालंकार में, दाहामु—देंगे, तुमं—तुझे, नियण्ठा हे निर्ग्रन्थ । मूलार्थ अध्यापकों के प्रतिकूल भाषण करने वाले! तू हमारे सामने उनके विरुद्ध बोल रहा है, यह प्रस्तुत अन्न-पानी भले ही विनष्ट हो जाए, परन्तु हे निर्ग्रन्थ! तुमको हम यह नहीं देंगे। टीका—इस गाथा में अन्य प्रतिपाद्य विषय के साथ इस भाव को भी व्यक्त किया गया है कि प्रतिकूल भाषण अभीष्ट प्राप्ति में प्रतिबन्धक होता है, अर्थात् प्रतिकूल बोलने वाले को अपने अभिलषित कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती। जैसे कि विद्यार्थी मुनि के प्रतिकूल वचनों को सुनकर उनसे उत्तेजित होकर कहने लगे कि | श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 420 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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