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अर्थात् जिस प्रकार शिल्पकला में नैपुण्य प्राप्त करने से व्यक्ति शिल्पी होता है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य के सेवन से ब्राह्मण होता है। जिसमें ब्रह्मचर्य का अभाव है वह तो केवल नाममात्र का ब्राह्मण है, जैसे कि चतुर्मास में होने वाले एक क्षुद्र कीट का नाम इन्द्रगोप है। तात्पर्य यह है कि जैसे उस कीट में इन्द्रगोपता नहीं है, उसी प्रकार केवल जाति मात्र से किसी में वास्तविक ब्राह्मणत्व नहीं आ सकता । आप लोगों में सद्विद्या का भी अभाव है, क्योंकि जो पांचों आश्रवों का संवर मार्ग के अवलम्बन द्वारा निरोध करता है उसी को वास्तव में विद्वान कहना अथवा मानना चाहिए। जाति मात्र से कोई विद्वान नहीं हो सकता है, इसलिए जाति और विद्या से रहित ब्राह्मणों में पुण्यक्षेत्रता का जो अभाव प्रतिपादन किया है वह वास्तव में आप लोगों में ही घटित हो रहा है ।
सारांश यह है कि चार कषाय और पांच आश्रवों से जो निवृत्त है, वही वास्तव में पुण्य क्षेत्र है । इसके अतिरिक्त यदि कोई विद्वान् लौकिक शास्त्रों का वेत्ता भी हो, तो भी यदि उसमें आश्रवों और कषायों की प्रधानता है तो वह पाप रूप क्षेत्र ही है ।
जो लोग केवल वेदवक्ता होने से अपने आपको ब्राह्मण मानते हैं, अब उनको उत्तर देते हुए वह यक्ष कहता है—
तुबभेत्थ भो! भारधरा गिराणं, अट्टं न जाणेह अहिज्ज वेए । उच्चावयाइं मुणिणो चरन्ति, ताइं तु खेत्ताइं सुपेसलाई ॥ १५ ॥
यूयमत्र भो! भारधरा गिरां अर्थं न जानीथाधीत्य वेदान् । उच्चावचानि मुनयः चरन्ति तानि तु क्षेत्राणि सुपेलानि ॥ १५ ॥ पदार्थान्वयः –—– भो – हे ब्राह्मणो! अत्थ - इस लोक में, तुब्भे—तुम, गिराणं - वेदरूप वाणी के भारधरा- भार उठाने वाले हो, अहं— अर्थ को, न जाणेह — नहीं जानते, वेए — वेदों को, अहिज्ज—पढ़कर भी, उच्चावयाई — ऊंच और नीच घरों में, मुणिणो – मुनि लोग भिक्षा के लिए, चरंति—विचरते हैं, ताई—वे ही, तु — निश्चय ही, खेत्ताई — क्षेत्र, सुपेसलाई —— मनोहर होते हैं।
मूलार्थ - हे ब्राह्मणों! तुम लोग इस लोक में वेदवाणी का केवल भार उठाने वाले ही हो, क्योंकि तुमने वेदों को पढ़कर भी उनके अर्थों को यथार्थतः नहीं जाना, अतः जो मुनि लोग ऊंच-नीच घरों में भिक्षा के लिए विचरते हैं वे ही वास्तव में सुन्दर क्षेत्र हैं । तात्पर्य यह है कि पुण्यरूप फल को उत्पन्न करने वाले भावरूप उत्तम क्षेत्र मुनिं ही हैं ।
टीका- जो लोग केवल शास्त्रों के पाठ मात्र रट लेते हैं और उनके अर्थ के रहस्य पर विचार नहीं करते वे लोग वास्तव में शास्त्रज्ञ नहीं होते, बस इसी भाव को व्यक्त करने के लिए प्रस्तुत गाथा का उल्लेख किया गया है।.
यक्ष ने ब्राह्मणों के कथन का उत्तर देते हुए कहा कि तुम लोग वेदों के केवल भारवाहक हो, अर्थात् उनकी वाणी का केवल बोझ ही तुमने उठा रखा है, क्योंकि वेदों को पढ़कर भी तुमने उसके श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 419 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं