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________________ मूलार्थ - लोक में पुण्य क्षेत्रों को हमने जान लिया है, जिनमें बहुत धान्यादि पदार्थ उत्पन्न होते हैं, अतः जो ब्राह्मण जाति और विद्या से युक्त हैं वे ही अति मनोहर क्षेत्र हैं । टीका—यक्ष के कथन को सुनकर वे ब्राह्मण बोले कि लोक में वास्तविक रूप से जितने भी पुण्यक्षेत्र हैं, वे सब हमको विदित हैं, जिनमें बोए हुए बीज अधिक से अधिक सुन्दर और सम्पूर्ण रूप से फल देने में समर्थ होते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि जैसे इस लोक में उत्तम क्षेत्र में वपन किया हुआ धान्यादि का बीज अपने समय पर विशिष्ट फल देता है, उसी प्रकार सुयोग्य पात्र को दिया हुआ दान भी परलोक में सर्व प्रकार से पुण्यरूप उत्तम फल का उत्पादक होता है। किन्तु उत्तम क्षेत्र वास्तव में वे ब्राह्मण ही हैं जो कि जाति और विद्या से युक्त हैं। तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण और वेदादि चतुर्दश विद्याओं में निपुण हो वही परम सुन्दर क्षेत्र है । इसलिए शूद्र कुलोत्पन्न व्यक्ति पुण्यक्षेत्र नहीं हो सकते । ब्राह्मणों के इस कथन के उत्तर में यक्ष ने जो कुछ कहा, अब शास्त्रकार उसका वर्णन करते हैंकोहोय माणो य वह य जेसिं, मोसं अदत्तं च परिग्गही य । ते माहणा जाइविज्जाविहूणा, ताई तु खेत्ताई सुपावयाई ॥ १४ ॥ क्रोधश्च मानश्च वधश्च येषां मृषाऽदत्तं च परिग्रहश्च । ते ब्राह्मणा जातिविद्याविहीनाः, तानि तु क्षेत्राणि सुपापकानि || १४ || पदार्थान्वयः —–— कोहो –—–— क्रोध, य— और, माणो – मान, य— और माया लोभ, वहो — प्राणिवध, जेसिं—जिन्हों के, मोसं— झूठ, च—- और, अदत्तं – चोरी, परिग्गहो — परिग्रह, य— और मैथुन, ते—वे, माहणा—ब्राह्मण, जाइ – जाति और, विज्जा —– विद्या से, विहूणा - रहित हैं, ताईवे, तु — निश्चय ही, खेत्ताई — क्षेत्र, सुपावयाइं – अतिशय पापरूप हैं । मूलार्थ — जो ब्राह्मण क्रोध, मान, माया और लोभ तथा हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह से युक्त हैं तथा जाति और विद्या इन दोनों से भी रहित हैं निश्चय ही वे पापरूप क्षेत्र हैं। टीका - ब्राह्मणों के कथन को सुनकर उनके प्रति यक्ष ने कहा कि हे ब्राह्मणो! आप लोग क्रोध, मान, माया और लोभ तथा हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह में प्रवृत्त रहते हो, परन्तु जो ब्राह्मण उक्त व्यसनों में प्रवृत्त हैं वे वास्तव में जाति और विद्या दोनों से ही रहित हैं, क्योंकि उत्तम कुल, जाति और विद्या का जो सात्त्विक फल होना चाहिए वह उनमें नहीं है तथा चातुर्वर्ण्य की व्यवस्था गुण-कर्म के विभाग से ही मानी गई है, केवल जाति मात्र से नहीं । तथाहि ब्राह्मणो ब्रह्मचर्येण तथा शिल्पेन शिल्पिकः । अन्यथा नाममात्रं स्यादिन्द्रगोपककीटवत् ॥ * १. शिक्षा, २. कल्प, ३. व्याकरण, ४. छन्द, ५. ज्योतिष शास्त्र, ६. निरुक्त, ७-१०. चार वेद, ११. मीमांसा १२. आन्वीक्षिकी, १३. धर्मशास्त्र, और १४. पुराण – ये चतुर्दश विद्याएं कहलाती हैं। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 418 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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