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________________ य–फिर, एयाए—इसी, सद्धाए श्रद्धा से, दलाह—दे दो, मज्झं मुझे, खु–निश्चय ही, आराहए—आराधन कर लो, इणं—यह प्रत्यक्ष, पुण्ण—पुण्य रूप, खित्तं-क्षेत्र को। ___ मूलार्थ जैसे खेती की आशा से किसान लोग स्थलों में अर्थात् खेतों में बीज बोते हैं और निम्न स्थानों में बीजते हैं, उसी श्रद्धा से आप मुझे भिक्षा दे दो। निश्चय ही इस पुण्यरूप क्षेत्र का आराधन कर लो। टीका ब्राह्मणों के वक्तव्य को सुनकर कटाक्ष रूप से वह यक्ष बोला कि किसान लोग फल की आशा से जैसे स्थल और निम्न स्थानों में नानाविध धान्यों के बीजों का वपन करते हैं, क्योंकि यदि वृष्टि समय पर अच्छी हो गई तब तो स्थल में भी धान्योत्पत्ति हो जाएगी और यदि कम हुई तो निम्न स्थानों में बोए हुए बीजं फल दे जाएंगे। तात्पर्य यह है कि किसान के हृदय में दो ही प्रकार की आशा रहती है। ऐसे ही आप लोग भी मुझे इसी आशा वा श्रद्धा से भिक्षा दे दीजिए, क्योंकि यदि तुम्हारी बुद्धि अपने आप में निम्न भूमि के समान है और मुझे तुम स्थल-भूमि के समान समझते हो, तब भी तुम्हें भिक्षा देनी ही उचित है; कारण कि भिक्षा दिए बिना फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए तुम पुण्यरूप क्षेत्र का आराधन अवश्य कर लो। मैं पुण्यरूप क्षेत्र हूं, मुझे दिया हुआ दान उत्तम भूमि में बोए हुए बीज की तरह विशेष फल देने वाला है, अतः तुम इस पुण्यरूप क्षेत्र का उत्तम फल-प्राप्ति के लिए अवश्य आराधन कर लो। यहां पर सूत्रकार ने जो उच्च स्थान और निम्न स्थान के खेतों की उपमा दी है वह पर्वत प्रान्त की भूमि को लेकर दी है, क्योंकि वहां पर ही खेती का ऐसा क्रम देखा जाता है। यहां पर अधिक वृष्टि से उच्च भूमि में और न्यून वृष्टि से निम्न भूमि में धान्यों की उत्पत्ति अधिक हो जाती है, क्योंकि ऊंचे स्थल में पानी कम ठहरता है और नीची भूमि में उसका अधिक ठहराव होता है। इसी अभिप्राय से यक्ष कहता है और कुछ नहीं तो मुझे निम्न स्थल के समान जानकर ही भिक्षा दे दो साथ में यह संकेत भी कर दिया गया है कि मैं पुण्यरूप क्षेत्र हूं, मेरा आराधन अवश्य ही उत्तम फल देने वाला है। सो यदि तुम्हारे भाग्य में हो तो आराधन कर लो। यक्ष के इस प्रकार के सभ्यता पूर्ण उत्तर को सुनकर उन ब्राह्मणों ने जो कुछ उस यक्ष के प्रति कहा, अब शास्त्रकार उसी का वर्णन करते हैं खेत्ताणि अम्हं विइयाणि लोए, जहिं पकिण्णा विरुहन्ति पुण्णा। जे माहणा जाइविज्जोववेया, ताइं तु खेत्ताई सुपेसलाइं ॥१३॥ क्षेत्राण्यस्माकं विदितानि लोके, येषु प्रकीर्णानि विरोहन्ति पुण्यानि | - ये ब्राह्मणा जातिविद्योपपेताः, तानि तु क्षेत्राणि सुपेशलानि || १३ ॥ पदार्थान्वयः-खेत्ताणि क्षेत्र, अम्हं—हमने, विइयाणि जान लिए हैं, लोए-लोक में, जहिं जिनमें, पकिण्णा–प्रकीर्ण, विरुहंति—उत्पन्न होते हैं, पुण्णा—पुण्य-धान्य, जे–जो, माहणा—ब्राह्मण, जाइ-जाति, विज्जोववेया और विद्या से युक्त हैं, ताई–वे ही, तु–वितर्क में, खेत्ताइं—क्षेत्र, सुपेसलाई—अति मनोहर हैं। . श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 417 | हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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