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गया है—'न तस्स जातिं व कुलं व ताणं' तथा—'नन्नत्थ विज्जा-चरणप्पमोक्खं' अर्थात् जाति और कुल इस आत्मा को दुर्गति से नहीं बचा सकते तथा विद्या और चारित्र के बिना और कोई मोक्ष का साधन नहीं है, अतः विचारशील पुरुषों को किसी व्यक्ति के कुल-गोत्र का विचार न करते हुए उसके गुणों का ही विचार करना चाहिए, क्योंकि वास्तविक पूज्यता इस आत्मा में उत्तम गुणों के संचार से ही
आ सकती है। ___अब इस विषय में एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यदि सारा विचार गुणों पर ही अवलम्बित है तो क्या नीच जाति के साधु के साथ उच्च जाति के साधुओं को आहार कर लेना चाहिए? यदि नहीं तो जाति की भी प्रधानता रही।
इसका समाधान यह है कि सिद्धान्त की दृष्टि से तो हीन जाति के साधु के साथ आहार करने में कोई दोष नहीं है, परन्तु व्यवहार-दृष्टि को लेकर ऐसा करना उचित नहीं, क्योंकि वीतरागदेव के मार्ग में निश्चय और व्यवहार दोनों को ही अपनी-अपनी कक्षा में समान अधिकार दिया गया है। यदि केवल निश्चय मार्ग का ही अवलम्बन करना सदा श्रेयस्कर होता तो केवली भगवान् के लिए रात्रि में विहार न करना, रात्रि में भोजन न करना तथा स्त्रीयुक्त स्थान में न बैठना इत्यादि लौकिक मर्यादा के अनुसरण करने की आवश्यकता कदापि न होती, इसीलिए लोक में यदि नीच जाति के साधु के साथ अन्य साधुओं के आहार आदि के एकत्रित होने की चर्चा नहीं अथवा यदि जनता. में इसके लिए अनादर की भावना नहीं तब तो इस कार्य में कोई आपत्ति नहीं परन्तु यदि लोक मर्यादा इस कार्य का समर्थन नहीं करती तब तो इसका आचरण करना उचित नहीं है। इसका सारांश यह है कि सिद्धान्त के अनुसार यदि कोई कार्य निन्दाजनक नहीं तो भी यदि लोकमत के विरुद्ध हो तो उस कार्य का भी आदर नहीं होना चाहिए। कहा भी है—'यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं न करणीयं नाचरणीयम् ।' अब फिर उक्त मुनि के गुणों के विषय में कहते हैं
इरिएसणभासाए, उच्चारसमिईसु य । जओ आयाणनिक्खेवे, संजओ सुसमाहिओ ॥ २ ॥
ई]षणाभाषा, उच्चारसमितिषु च ।
यत आदाननिक्षेपे, संयतः सुसमाहितः || २ || पदार्थान्वयः—इरि-ईर्या, एसण—एषणा, भासाए—भाषा, उच्चार—पुरीष, य—और, समिईसु–समितियों में, जओ—यत्न वाला, आयाण-वस्तु ग्रहण करना, निक्खेवे-निक्षेप करना, संजओ—यत्न करने वाला, सुसमाहिओ-सुन्दर समाधि वाला।
मूलार्थ—वह मुनि ईर्या-समिति, एषणा-समिति, भाषा-समिति, उच्चार-समिति, आदान और निक्षेप-समिति, इन पांचों में यल करने वाला तथा सुन्दर समाधि वाला था।
टीका—इस गाथा में मुनि के गुणों का वर्णन करते हुए पांचों समितियों का उल्लेख किया गया है, अर्थात् वह हरिकेशबल नामक साधु मार्ग में चलते समय ईर्यासमिति का उपयोग करता था, बोलते
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 408 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं