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समय भाषासमिति ‘का पालन करता था और आहार आदि की गवेषणा के समय एषणा - समिति युक्त रहता था तथा पीठ-पाट आदि के ग्रहण में और रखने में निरन्तर यत्नवान् था और साथ ही मल और मूत्र आदि पदार्थों के त्याग में सर्वथा विवेक से काम लेता था। इस प्रकार साधु की प्रत्येक क्रिया में नशील होता हुआ वह सदा समाहित था ।
इन पांचों समितियों के विस्तृत स्वरूप का उल्लेख इसी सूत्र के चौबीसवें अध्ययन में किया गया है, अतः वहां पर ही इनका विवेचन किया जाएगा, यहां पर समितियों का जो अनुक्रम से उल्लेख नहीं किया गया उसका कारण केवल छंदोभंग दोष से बचना ही है ।
एवं भासए यहां पर जो 'भासा' शब्द के आगे 'ए' यह प्रत्यय दिया है, इसका तात्पर्य सप्तमी विभक्ति के निर्देश से नहीं, किन्तु यहां पर प्राकृत आर्षवाणी के कारण से ही 'एकार' का आगमन हुआ है, ऐसा समझना चाहिए। *
अब फिर उक्त मुनि के गुणों का ही वर्णन किया जाता है—
मणगुत्तो वयगुत्तो, कायगुत्तो जिइन्दिओ । भिक्खट्ठा बंम्भइज्जम्मि जन्नवाडे उवट्ठिओ || ३॥ मनोगुप्तो वचोगुप्तः, कायगुप्तो जितेन्द्रियः । भिक्षार्थं ब्रह्मेज्ये, यज्ञपाट उपस्थितः ॥ ३ ॥
पदार्थान्वयः —– मणगुत्तो—–— मनगुप्त, वयगुत्तो – वचनगुप्त, कायगुत्तो— कायागुप्त, जिइंदिओ - जितेन्द्रिय, भिक्खट्ठा — भिक्षा के लिए, बंभइज्जम्मि — ब्राह्मणों के यज्ञ में, जन्नवाडे — यज्ञवाट में, उवट्ठिओ— उपस्थित हुआ ।
मूलार्थ – मनोगुप्त, वचन और कायगुप्त तथा जितेन्द्रिय वह मुनि भिक्षा के निमित्त से ब्राह्मण द्वारा सम्पादन किए गए यज्ञ मंडप में उपस्थित हुआ ।
टीका — इन्द्रियों को सर्वथा वश में रखने वाला वह मुनि भिक्षार्थ भ्रमण करता हुआ एक समय ब्राह्मणों के द्वारा सम्पादित होने वाले एक यज्ञ में उपस्थित हुआ। उस मुनि के मन, वचन और काय, ये तीनों ही गुप्त अर्थात् सुरक्षित थे । तात्पर्य यह है कि ध्यान-समाधि के द्वारा उसने अपने मन को वश में किया हुआ था, इसी प्रकार वाणी और शरीर पर भी उसका पूरा अधिकार था ।
यहां पर दूसरी बार जो 'जितेन्द्रिय' शब्द का उल्लेख किया गया है, उसका तात्पर्य इन्द्रियों की दुर्जयता को सूचित करना है, क्योंकि इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना नितान्त कठिन है ।
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'मनोगुप्तः' का अर्थ मनोगुप्ति से गुप्त, इस प्रकार मध्यमपदलोपी - समास से अर्थ करना चाहिए । '
'एकारस्यालाक्षणिकत्वाद् वा प्राकृते आर्षत्वाद् एकारस्यागमोऽस्ति' ।
'मनोगुप्त्या गुप्तो मनोगुप्तः, वचोगुप्त्या गुप्तो वचोगुप्तः कायगुप्त्या गुप्तः कायगुप्तः' इत्यादि ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 409 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं