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विद्वानों को आमंत्रित किया और वे सब आ गए। यज्ञमंडप में पधारने वाले उन आगन्तुक विद्वानों के लिए रुद्रदेव ने अनेक प्रकार की भोजन-सामग्री का निर्माण कराया।
इसी अवसर पर वे महर्षि वहां पर मासोपवास के पारणे के निमित्त भिक्षा के लिए आ पहुंचे (इतनी कथा सूत्र में आए हुए विषय से सम्बन्ध मिलाने के लिए वर्णन की गई है) उस समय यज्ञ-मंडप में आए हुए उस मुनि का ब्राह्मणों के साथ जो वार्तालाप हुआ था उसी का दिग्दर्शन प्रस्तुत सूत्र के इस बारहवें अध्ययन में कराया गया है, जोकि उक्त मुनि के जीवन से सम्बन्ध रखता हुआ बड़ा ही रोचक और शिक्षाप्रद है, यथा
सोवागकुलसंभूओ, गुणुत्तरधरो मुणी । हरिएसबलो नाम, आसि भिक्खू जिइन्दिओ ॥ १॥ ___ श्वपाककुलसंभूतः, गुणोत्तरधरो मुनिः ।
हरिकेशबलो नाम, आसीद् भिक्षुर्जितेन्द्रियः ॥ १ ॥ पदार्थान्वयः-सोवाग–चांडाल, कुल–कुल में, संभूओ—उत्पन्न हुआ, गुणुत्तरधरो—प्रधान गुणों का धारक, मुणी—मुनि, हरिएसबलो–हरिकेशबल, नाम-नाम वाला, भिक्खू–साधु, जिइंदिओ—जितेन्द्रिय, आसि—हुआ। ..
___ मूलार्थ चांडाल-कुल में उत्पन्न एवं मुनियों के प्रधान गुणों के धारक मुनि हरिकेशबल नाम का एक जितेनद्रिय साधु हुआ था। . • टीका हरिकेशबल नामक एक जितेन्द्रिय साधु चांडाल कुल में उत्पन्न होकर भी प्रधान गुणों का धारक हुआ है। इस कथन का तात्पर्य यह है कि नीच कुल में उत्पन्न होने पर भी गुणों की विशिष्टता से यह आत्मा उच्च कुल वालों का भी पूजनीय हो सकता है तथा दीक्षा का अधिकार केवल उच्चवर्ग को ही नहीं, किन्तु उसका वास्तविक सम्बन्ध तो वैराग्यभावित सभी आत्माओं से होता है, अर्थात् दीक्षा और ज्ञान का सम्बन्ध किसी उच्च अथवा नीच कुल से नहीं, किन्तु उसका सम्बन्ध केवल शुद्ध आत्मा से है। जाति और कुल गोत्र तो अघातिकर्मों का फल हैं और ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र ये सब ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन घाति कर्मों के क्षय व क्षयोपशम का परिणाम हैं, इसलिए ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति से ऊंच-नीच जाति का कोई सम्बन्ध नहीं है।
इसी अभिप्राय से प्रस्तुत अध्ययन की उत्पत्ति हुई है, अर्थात्, चारित्र-प्राप्ति और गुण-सम्पदा के लाभार्थ आत्मा में विशिष्ट योग्यता की ही आवश्यकता है और जाति तथा कुल-गोत्र उसमें कारण-भूत नहीं हैं। आत्मा के साथ लगे हुए कर्ममल को जलाने के लिए तप-रूप अग्नि को प्रज्वलित करने की आवश्यकता है तथा आत्मा में रहे हुए अज्ञानान्धकार को दूर करने के निमित्त अन्तरात्मा में ज्ञान-ज्योति के प्रकाश की जरूरत है। इसलिए मोक्ष के कारणभूत ज्ञान और चारित्र के सम्पादन में किसी उच्च जाति अथवा कुल विशेष की कोई आवश्यकता नहीं। इसी आशय से सिद्धान्त में कहा | , श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 407 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं ।