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________________ गया। उसने इस अपमान के उत्तर में राजकन्या को योग्य शिक्षा देने का विचार करके उसको दास-दासियों सहित उठाकर राजमहल में फेंक दिया। राजपुत्री की भयानक दशा देखकर राजमहल में कोलाहल मच गया। तब राजा ने अपने अमात्यों के द्वारा नगर के अनेक अनुभवी वृद्ध वैद्यों को बुलाकर उसकी चिकित्सा आरम्भ करवाई, परन्तु अनेक प्रकार की औषधियों का प्रयोग करने पर भी उस कन्या के रोग में अणुमात्र भी अन्तर नहीं पड़ा। ___ तब उसके मुख में प्रवेश करके वह यक्ष कहने लगा कि इस कन्या ने मेरे मन्दिर में ठहरे हुए एक संयमशील महातपस्वी साधु का घोर अपमान किया है, इसलिए मैंने ही इसकी यह दशा कर दी है। यदि अब यह उससे विवाह करने को तैयार हो जाए तब मैं इसको छोड़ सकता हूं, अन्यथा नहीं। राजा ने यक्ष की बात को जब स्वीकार कर लिया तब यक्ष ने उस कन्या को छोड़ दिया और वह पहले की तरह स्वस्थ हो गई। इसके अनन्तर राजा ने उस कन्या को नानाविध अलंकारों से अलंकृत किया और कन्या तथा विवाह के योग्य बहुमूल्य उपकरणों को लेकर उस वन में लाकर उसने कन्या-सहित हरिकेशीबल मुनि के चरणों में नमस्कार किया और हाथ जोड़कर इस प्रकार प्रार्थना करने लगा___हे मुने! इस कन्या से आप विवाह कीजिए और इसके सुकोमल करों को अपने तपस्वी करों के स्पर्श से पवित्र कीजिए।' पिता के इस कथन का उस कन्या ने भी बड़ी नम्रता से समर्थन किया। पिता और पुत्री के इस प्रकार के वचनों को सुनकर हरिकेशीबल मुनि बोले कि ___'बुद्धिमान पुरुषों के द्वारा बार-बार निन्दित किए गए इस स्त्री-भोग रूप अधर्म से हम तो सर्वथा निवृत्ति पा चुके हैं और जहां पर स्त्री, पशु और नपुंसक ठहरते हों, वहां पर भी हम नहीं ठहरते तथा न ही स्त्री के साथ एक स्थान में निवास करते हैं, तब भला इस कन्या का हाथ किस तरह ग्रहण किया जाए? वास्तव में तो साधु मुक्ति के इच्छुक होते हैं, स्त्रियों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। कन्या की ओर संकेत करके वे बोले हे भद्रे! मैं तो संयमशील साधु हूं, इसलिए मैं तो स्त्री का स्पर्श तीन करण और तीन योगों से भी नहीं कर सकता, इसलिए हे भद्रे! तू मेरे से दूर रह । मैंने तेरा हाथ कभी ग्रहण नहीं किया, किन्तु तेरे साथ जो कुछ भी व्यवहारं हुआ है वह सब कुछ इस यक्ष की चेष्टा का फल है, मेरा इससे कोई सरोकार नहीं है। मुनि के इन वचनों को सुनकर राजा और राजकन्या दोनों खिन्नचित्त होकर अपने राज-भवन में वापिस चले आए। तब राजा से रुद्रदेव नाम के पुरोहित ने कहा कि 'हे राजन! यह कन्या अब मुनिपत्नी हो चुकी है, किन्तु उस मुनि ने यह त्याग दी है, अतः अब यह कन्या किसी ब्राह्मण को दे देनी चाहिए, क्योंकि ऋषियों का भोज्य पदार्थ ब्राह्मणों के योग्य होता है। तब राजा ने वह कन्या उस पुरोहित को ही दे दी। फिर वह पुरोहित कुछ समय तक उस राजकन्या से विषय-सुख का उपभोग करता हुए एक दिन राजा से कहने लगा कि अब इसको ऋषिपत्नी के स्थान पर यज्ञपत्नी बनाना है, अतः मैं एक बड़े विशाल यज्ञ का सम्पादन करना चाहता हूं। राजा ने उसको यज्ञ करने की आज्ञा दे दी। तब रुद्रदेव नाम के पुरोहित ने अनेक देशों के अनेक श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 406 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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