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________________ वहां जाकर उनके साथ मैं भी खेलूं, परन्तु वृद्धों ने उसे अतिक्रोधी जानकर वहां आने से रोक दिया था। इसी अबसर पर वहां एक सर्प निकल आया। उसको अतिभयंकर विष वाला समझकर वहां पर एकत्रित हुए उन चाण्डालों ने उसको मार डाला और फिर वहां पर ही एक लम्बी गोह आ निकली। तब उन चाण्डालों ने उसे निर्विष समझकर मारा नहीं, किन्तु उठाकर दूर छोड़ दिया। इस दृश्य को कुछ दूरी पर खड़े हुए उस चांडाल-पुत्र 'बल' ने भी देखा। उसको देखकर उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि वास्तव में प्राणी अपने ही दोषों से सर्वत्र तिरस्कार का पात्र बनता है। यदि मैं सांप के समान क्रोध-रूप विष से भरा हआ हं तभी तो ये लोग मेरा तिरस्कार कर रहे हैं और यदि मैं गोह के समान निर्विष होता तब तो कोई मेरा अनादर न करता। इस प्रकार विचार-परम्परा में निमग्न हुए उसको जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। तब उसने अपने पूर्व भव के जाति-मद के फल और देवोचित्त सुखों की विनश्वरता का विचार करके इस संसार को तुच्छ समझकर वैराग्य-पूर्वक दीक्षाव्रत को अंगीकार कर लिया और वह मुनि हरिकेशबल के नाम से संसार में विख्यात हुआ। दीक्षाव्रत को स्वीकार करने के अनन्तर हरिकेशीबल साधु ने मुनि धर्मोचित आचार का पालन करते हुए घोर तपश्चर्या आरम्भ कर दी। व्रत, बेला, तेला, चौला, अर्धमास और मास तप का अनुष्ठान करते हुए विहार करके एक समय वह वाराणसी नगरी में पहुंचा और वहां पर तिंदुक वन में बने हुए मण्डिक यक्ष के मन्दिर में ठहरा। वहां पर उसने मास-क्षमण तप का आरम्भ कर दिया। उसके गुणों में अनुरक्त होकर वह मंडिक यक्ष उसकी निरन्तर सेवा करने लगा। . किसी समय उसी वन में मंडिक यक्ष के पास कोई दूसरा यक्ष प्राघूर्णक अर्थात् पाहुना बन कर आया। उस आगन्तुक यक्ष ने मंडिक यक्ष से कहा कि तुम आजकल मेरे वन में क्यों नहीं आते? उत्तर में मंडिक यक्ष ने कहा कि मैं आजकल इस महर्षि की सेवा में रहता हूं। इसके गुणों के अनुराग से मेरा अन्यत्र कहीं पर भी जाने को मन नहीं करता। यह सुनकर यक्ष भी उस मुनि के गुणों पर मुग्ध होकर उसकी सेवा करने लगा। एक दिन उस आगन्तुक यक्ष ने मंडिक यक्ष से कहा कि 'मित्र! इस प्रकार के एक मुनि मेरे वन में भी ठहरे हुए हैं, चलो उनके भी दर्शन करें तथा उनकी सेवा-सुश्रूषा करें। ऐसे कहकर वे दोनों वहां पर गए और जाकर देखा तो मुनि प्रमाद में तत्पर और विकथा आदि में लगे हुए पाए गए। तब वे दोनों यक्ष उनसे विरक्त होकर वहां से वापिस चले आए और दोनों ही बड़ी श्रद्धा-भक्ति से हरिकेशीबल मुनि की सेवा करने लगे।' । ___एक समय उस यक्ष-मन्दिर में वाराणसी के स्वामी कौशलिक राजा की पुत्री भद्रा अपने दास दासियों के साथ पूजा की सामग्री लेकर आई। यक्ष की प्रतिमा का भली-भान्ति पूजन करने के अनन्तर प्रदक्षिणा करते समय उसने हरिकेशीबल मुनि के मल से मैले वस्त्र और घोर तपस्या के कारण अत्यन्त कृश एवं कुरूप शरीर को देखकर उस पर थूक दिया। उसके द्वारा किए गए उक्त मुनि के इस भयंकर अपमान को देखकर मंडिक यक्ष से न रहा - श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 405 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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