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________________ इस प्रकार बहुश्रुत के गुणों का वर्णन करने के अनन्तर अब शिष्यों के उपदेश के विषय में कहते हैं— तम्हा सुयमहिट्ठिज्जा, उत्तमट्ठगवेसए । जेणऽप्पाणं परं चेव, सिद्धिं संपाउणेज्जासि ॥ ३२ ॥ त्ति बेमि । इति बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं समत्तं || ११ | तस्मात् श्रुतमधितिष्ठेत्, उत्तमार्थगवेषकः । येनात्मानं परं चैव, सिद्धिं संप्रापयेत् ॥ ३२ ॥ इति ब्रवीमि । इति बहुश्रुतपूजमेकादशमध्ययनं संपूर्णम् ॥ पदार्थान्वयः–तम्हा—इसलिए, सुयं श्रुत को, अहिट्ठिज्जा — पढ़े, उत्तमट्ठ—— उत्तम अर्थ के, गवेस – गवेषणा करने वाला, जेण - जिससे, अप्पाणं - अपने आत्मा को, च— और, परं—दूसरे को, सिद्धिं—मोक्ष में, संपाउणेज्जासि — पहुंचाता है, त्ति – (समाप्ति अर्थ में), बेमि—मैं कहता हूं। मूलार्थ — इसलिए उत्तम अर्थ का गवेषण करने वाला साधक उस श्रुत को पढ़े, जिस श्रुत से वह अपने तथा पर के आत्मा को मोक्ष में पहुंचाता है, अर्थातु मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । टीका – इस गाथा में यह भाव प्रदर्शित किया गया है कि बहुश्रुत होने का अन्तिम फल मोक्ष की प्राप्ति है, अतः मुमुक्षु जनों को श्रुत का अध्ययन अवश्य करना चाहिए, क्योंकि श्रुत का श्रवण करना, चिन्तन करना आदि जितने भी व्यापार हैं वे सब श्रुत के अध्ययन के ही कारण हैं, अतः उत्तम अर्थ अर्थात् मोक्ष की गवेषणा करना ही बहुश्रुत का प्रधान कर्त्तव्य है । तात्पर्य यह है कि अपने आत्मा और पर के आत्मा को मोक्ष में ले जाने का साधन एक मात्र श्रुत ही है । उसी के आश्रय से वह अपने तथा दूसरे की आत्मा को मुक्ति-मार्ग का पथिक बनाने में समर्थ हो सकता है। इसलिए बहुश्रुत मुि श्रुत के सम्पादन में सबसे अधिक प्रयत्नशील होना चाहिए, क्योंकि उसके आश्रय से बहुश्रुत व्यक्ति स्वयं मोक्षगामी होता हुआ दूसरों को भी मोक्ष में पहुंचने के योग्य बना देता है। सारांश यह है कि बहुश्रुत स्वयं तो मोक्ष को प्राप्त करता ही है, परन्तु अपने श्रुत के प्रभाव से अपने उपासकों को भी उसी मार्ग का अनुसरण कराकर मोक्ष-मन्दिर तक पहुंचा देता है, इसलिए दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि 'बहुस्सुयं पज्जुवासिज्जा' अर्थात् मोक्ष के लिए बहुश्रुत की उपासना, अर्थात् सेवा करे। ‘त्ति बेमि’ की व्याख्या पीछे अनेक बार आ चुकी है, उसी के अनुसार यहां पर भी इन शब्दों भाव समझ लेना चाहिए । एकादशम अध्ययन संपूर्ण श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 402 / बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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