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________________ टीका—स्वयंभू-रमण समुद्र अक्षय जल को धारण करने वाला है, क्योंकि उसका जल कभी शुष्क नहीं होता, इसलिए द्रव्यार्थिक नय के मत से उसका जल अक्षय प्रतिपादन किया गया है, और इसीलिए उसको अक्षयोदक कहते हैं। फिर वह नाना प्रकार के रत्नों से—मरकतादि मणियों से भरा हुआ है, इसी प्रकार बहुश्रुत भी गांभीर्यादि गुणों से भरपूर होता है, अर्थात् स्वयंभू-रमण समुद्र के समान वह भी अपने में ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप अक्षय जल को धारण करने वाला हुआ करता है। उसमें नाना प्रकार के अतिशय रूप रत्न होते हैं तथा वैक्रिय आदि लब्धियां उसमें बहुमूल्य मणियां कही जा सकती हैं, इसीलिए बहुश्रुत की स्वयंभू-रमण समुद्र से उपमा दी गई है। बहुश्रुत में गम्भीरता का होना परम आवश्यक है, क्योंकि जहां पर शान्ति और गम्भीरता होती है वहां पर सभी सद्गुण आ जाते हैं। अब बहुश्रुत के सहज गुणों का वर्णन करते हैं समुद्दगम्भीरसमा दुरासया, अचक्किया केणइ दुप्पहंसया । सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो, खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गया॥३१॥ समुद्रगंभीरसमा दुराश्रयाः, अचकिताः केनापि दुष्प्रधर्षकाः । श्रुतेन पूर्णा विपुलेन त्रायिणः, क्षपयित्वा कर्मगतिमुत्तमां गताः ॥ ३१ ॥ - पदार्थान्वयः—समुद्दगम्भीरसमा समुद्र के समान गम्भीर, दुरासया–जीतने की बुद्धि से दुराश्रय है, केणइ–कोई भी प्रतिवादी, अचक्किया समर्थ नहीं है, दुप्पहंसया न कोई उसका तिरस्कार कर सकता है, विउलस्स–विस्तीर्ण, सुयस्स-श्रुत से, पुण्णा—पूर्ण है, ताइणो—षट्काय का रक्षक-पालक, कम्मं कर्मों को, खवित्तु–क्षय करके, उत्तमं—उत्तम, गइं—गति को, गया—प्राप्त हुआ। मूलार्थ समुद्र के समान गम्भीर, प्रतिवादियों से न जीता जा सकने वाला तथा किसी से भी तिरस्कृत न होने वाला, विस्तृत श्रुत-ज्ञान से परिपूर्ण और षट्काय का रक्षक होता हुआ बहुश्रुत कर्मों का क्षय करके उत्तम गति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। . टीका—इस गाथा में बहुश्रुत के गुणों का वर्णन किया गया है, जैसे कि बहुश्रुत समुद्र के समान गम्भीर होता है और यदि कोई वादी कपट-बुद्धि से उसे छलना चाहे तो उसके लिए यह काम दुःसाध्य हो जाता है, अर्थात् उसे उसको छलने का कोई अवसर नहीं मिलता। कोई भी वादी उसको त्रस्त अथवा तिरस्कृत नहीं कर सकता, क्योंकि वह श्रुतज्ञान में प्रत्येक दृष्टि से परिपूर्ण होता है और षट्काय के संरक्षण में पूर्णतया सावधान रहता है। इस प्रकार गुणों का आश्रयभूत जो बहुश्रुत है वह कर्मों का क्षय करके उत्तम गति—मोक्ष में जाता है। उपलक्षण से उक्त गुणों को धारण करने वाले अन्य साधक भी कर्मों का क्षय करके मोक्ष में गए और आगे भी जाएंगे। . श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 401 / बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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