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________________ उक्त गाथा के अर्थ से यह भी ध्वनित होता है कि जैसे ऊंचे पर्वत से निकलने वाली नदी का जल अति स्वच्छ, शीतल और स्वादु होता है उसी प्रकार सद्विद्या आदि गुणों का उद्भव भी प्रायः उच्च कुल में उत्पन्न होने वाले बहुश्रुत में ही होता है । अब शास्त्रकार बहुश्रुत को मेरु की उपमा से अलंकृत करते हैंजहा से नगाण पवरे, सुमहं मन्दरे गिरी । नाणोसहिपज्जलिए, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २६ ॥ यथा स नगानां प्रवरः, सुमहान्मन्दरो गिरिः । नानौषधि-प्रज्वलितः, एवं भवति बहुश्रुतः ॥ २६ ॥ पदार्थान्वयः—–जहा—जैसे, से — वह, नगाण – पर्वतों में, पवरे - प्रधान, सुमहं अति बड़ा, मन्दरे – मेरु, गिरी – पर्वत है और, नाणोसहि—- नाना प्रकार की औषधियों से, पज्जलिए — प्रज्वलित है, एवं इसी प्रकार, बहुस्सुए — बहुश्रुत, हवइ — होता है । मूलार्थ - जैसे पर्वतों में प्रधान और अत्यन्त विस्तार वाला मेरु पर्वत नाना प्रकार की औषधियों से देदीप्यमान है उसी प्रकार बहुश्रुत भी होता है । टीका - जिस प्रकार मेरु पर्वतों में प्रधान अति विस्तार वाला तथा शल्या, विशल्या, संजीविनी, संरोहणी, चित्रावल्ली, सुधावल्ली, विषापहारिणी, शस्त्रनिवारिणी, भूतनागदमनी आदि अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियों से देदीप्यमान हो रहा है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी मुनियों में प्रधान, श्रुतज्ञान के माहात्म्य से अति महान् और परवादीरूप प्रबल वायु से भी अकम्पित एवं नानाविध लब्धियों से प्रकाशमान होता है तथा जिस प्रकार मेरु पर्वत अन्धकार का नाश करता है, उसी प्रकार बहुश्रुत मिथ्यात्व रूप अन्धकार का नाश करने वाला होता है । अब सूत्रकार स्वयंभूरमण समुद्र की उपमा देकर बहुश्रुत का वर्णन करते हैंजहा से सयंभू-रमणे, उदही अक्खओदए । नाणारयणपडिपुण्णे, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ ३० ॥ यथा स स्वयंभूरमणः, उदधिरक्षयोदकः । नानारत्न-प्रतिपूर्णः, एवं भवति बहुश्रुतः ॥ ३० ॥ पदार्थान्वयः – जहा — जैसे, से वह, सयंभू - रमणे—– स्वयंभू-रमण, अक्खओदए— अक्षय उदक को धारण करने वाला, नाणा - नाना प्रकार के, रयण - रत्नों से, पुणे - प्रतिपूर्ण है, एवं इसी प्रकार, बहुस्सुए — बहुश्रुत, हवइ — होता है । उदही समुद्र, मूलार्थ — जैसे वह स्वयंभू-रमण समुद्र अक्षय उदक को धारण करने वाला और नानाविध रत्नों से परिपूर्ण है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी होता है । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 400 / बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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