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अब सूत्रकार धान्यपति की उपमा से बहुश्रुत का वर्णन करते हैं
जहा से सामाइयाणं, कोट्ठागारे सुरक्खिए । नाणाधन्न-पडिपुण्णे, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २६ ॥
यथा स सामाजिकानां, कोष्ठागारः सुरक्षितः ।
नानाधान्य-प्रतिपूर्णः, एवं भवति बहुश्रुतः ॥ २६ ॥ पदार्थान्वयः-जहा—जैसे, से—वह, सामाइयाणं ग्रामवासियों के, कोट्ठागारे—कोष्ठागार, अर्थात् भण्डार, सुरक्खिए सुरक्षित होते हैं और वह, नाणाधन्न-पडिपुण्णे नाना प्रकार के धान्यों से, एवं—इसी प्रकार, बहुस्सुए—बहुश्रुत, हवइ—होता है। ____ मूलार्थ जैसे ग्राम-वासियों के नाना प्रकार के धान्यों से परिपूर्ण कोष्ठागार अर्थात् भण्डार सुरक्षित होते हैं, उसी प्रकार से बहुश्रुत भी सुरक्षित रहता है।
टीका—जैसे ग्रामवासी धनाढ्य लोग समय-समय पर नाना प्रकार के धान्यों का कोठों में संग्रह करके रखते हैं और मूषकादि के उपद्रवों से उनको बचाए रखते हैं, इसी प्रकार बहुश्रुत भी अपने अन्तःकरणरूप कोठे में अंगोपांगरूप धान्य-राशि को एकत्र करके उसे प्रमाद रूप मूषकों से सुरक्षित रखने का प्रयत्न करता है, क्योंकि जैसे मूषकादि जीव धान्य को नष्ट कर देते हैं, उसी प्रकार प्रमाद भी ज्ञान को विकृत कर देता है। धान्यराशि के कोठों को सुरक्षित रखने के लिए जैसे अन्य पुरुषों का पहरा रहता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी ज्ञान-भण्डाररूप बहुमूल्य धान्य-राशि को भविक गृहस्थों के द्वारा सुरक्षित रखता है।
उक्त गाथा का यह भी भाव है कि जैसे प्राणों का एवं जीवन का आधार होने से जनता संग्रह की हुई धान्य-राशि को सर्व प्रकार से सुरक्षित रखने का प्रयत्न करती है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी भव्य जीवों के लिए आधारभूत तथा उनके मिथ्यात्व का नाश करने वाला होने से संघ के द्वारा सदा सुरक्षित होना चाहिए। अब बहुश्रुत की सुदर्शन वृक्ष की उपमा से स्तुति करते हैं
जहा सा दुमाण पवरा, जम्बू नाम सुदंसणा | अणाढियस्स देवस्स, एवं हवइ बहुस्सुएं ॥ २७ ॥
यथा सा द्रुमाणां प्रवरा, जम्बूर्नाम सुदर्शना ।
अनादृतस्य देवस्य, एवं भवति बहुश्रुतः ॥ २७ ॥ पदार्थान्वयः जहा—जैसे, सा—वह, दुमाण—वृक्षों में, पवरा—प्रधान, जम्बू-जम्बू, नाम-नाम वाला वृक्ष है, सुदंसणा—सुदर्शन जिसका नाम है, अणाढियस्स-अनादृत, देवस्स–देवता के द्वारा अधिष्ठित है, एवं—उसी प्रकार, हवइ होता है, बहुस्सुए—बहुश्रुत ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 398 / बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं