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करने वाला होता है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार उदय होता हुआ सूर्य अन्धकार का विनाशक है, उसी प्रकार क्रियानुष्ठान में किसी प्रकार के प्रमाद का सेवन न करने वाला, अर्थात् धर्मानुष्ठान में सदा अप्रमत्त रहने वाला बहुश्रुत भी मिथ्यात्वरूप अन्धकार का विनाशक होता है । जैसे अन्धकार के विनाशक तेजस्वी सूर्य के असह्य तेज की ओर आंख नहीं उठाई जा सकती, उसी प्रकार द्वादशविध तप के अनुष्ठान से तेजस्विता को प्राप्त हुए बहुश्रुत की ओर भी कोई प्रतिवादी आंख उठाकर नहीं देख सकता ।
इसके अतिरिक्त उक्त गाथा में जो 'उत्तिष्ठन्' – उदय होता हुआ कहा गया है, उसका अभिप्राय यह है कि—जैसे आकाश में उदय होने पर ही सूर्य अन्धकार का नाश करने में समर्थ होता है उसी प्रकार बहुश्रुत भी अप्रमत्त दशा को प्राप्त हुआ ही अपने तपोबल से देदीप्यमान होकर भव्य जनों के हृदयान्धकार का विनाश करने में समर्थ होता है।
अब चन्द्रमा की उपमा से बहुश्रुत का वर्णन करते हैं
जहा से उडुवई चन्दे, नक्खत्त-परिवारिए । पडिपुणे पुण्णमासीए, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २५ ॥ यथा स उडुपतिश्चन्द्रः, नक्षत्र - परिवारितः । प्रतिपूर्णः पौर्णमास्यां, एवं भवति बहुश्रुतः || २५ |
पदार्थान्वयः – जहा — जैसे, से — वह, उडुवई—– नक्षत्रों का स्वामी, चन्दे – चन्द्रमा, नक्खत्तपरिवारिए – नक्षत्रों से परिवृत्त होकर, पडिपुणे – प्रतिपूर्ण, पुण्णमासीए – पूर्णमासी में विराजता है, एवं इसी प्रकार, हवइ — होता है, बहुस्सुए — बहुश्रुत ।
मूलार्थ जैसे नक्षत्रों का स्वामी चन्द्रमा नक्षत्रों से परिवृत एवं सर्व कलाओं से पूर्ण होकर पूर्णिमा को शोभा पाता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी शोभा पाया करता है।
टीका - जिस प्रकार नक्षत्र - गण से घिरा हुआ तारा मंडल का स्वामी चन्द्र, पूर्णिमा के दिन अपनी पूर्ण शोभा से युक्त होता है, ठीक उसी प्रकार गच्छ में अथवा श्रीसंघ में रहा हुआ बहुश्रुत अपने गुणों द्वारा अपूर्व शोभा को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि जैसे पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा अपनी सारी कलाओं से युक्त होता हुआ संसार को आनन्द देता है, उसी प्रकार सम्यक्त्वादि सद्गुणों से पूर्ण होता हुआ बहुश्रुत भी भव्य जीवों को परम शान्तिरूप आनन्द के देने वाला होता है ।
जैसे ग्रह-नक्षत्रादि का स्वामी चन्द्रमा है, वैसे ही संघ का अधिपति बहुश्रुत होता है एवं चन्द्रमा की भांति साधु-संघ से घिरा हुआ बहुश्रुत भी अपने शान्त्यादि गुणों से सदैव प्रसन्न ही दिखाई देता है।
सारांश यह है कि पूर्णिमा के चन्द्रमा में पूर्णता और शीतलता आदि जितने भी गुण विद्यमान हैं वे सब बहुश्रुत में भी पाए जाते हैं, अतः चन्द्रमा की भांति बहुश्रुत भी दर्शनीय, वन्दनीय, पूजनीय और वांछनीय होता है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 397
बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झणं