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है जिसके, पुरन्दरे – दैत्यों का विदारण करने वाला, सक्के —– इन्द्र, देवाहिवई - देवों का अधिपति है, एवं — उसी प्रकार, बहुस्सुए — बहुश्रुत, हवइ — होता है ।
मूलार्थ —जैसे इन्द्र हजार आंखों वाला, हाथ में वज्र रखने वाला, दैत्यों का विनाश करने वाला है, उसी प्रकार बहुश्रुत होता है ।
टीका - जैसे इन्द्र की हजार आंखें होती हैं, उसी प्रकार बहुश्रुत की श्रुत ज्ञान-रूप हजार आंखें होती हैं। जैसे इन्द्र के हाथ में सदैव वज्र रहता है उसी प्रकार बहुश्रुत के हाथ में वज्र का चिह्न होता है। जैसे इन्द्र दैत्यों के नगरों का विदारण करता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी शरीररूप नगर को तप कर्म के द्वारा दुर्बल कर लेता है । जैसे इन्द्र देवों का अधिपति है, उसी प्रकार देव-समान साधुओं का बहुश्रुत अधिपति है, क्योंकि हरिकेशिबल मुनि की तरह वह भी देवों के द्वारा पूजा जाता है ।
उक्त गाथा में इन्द्र को जो हजार आंखों वाला कहा गया है, उसका तात्पर्य यह है कि इन्द्र के एक कम पांच सौ मन्त्री इस प्रकार के हैं कि जिन पर इन्द्रदेव की प्रसन्नता होती है उस पर वे भी प्रसन्न रहते हैं और जिस पर इन्द्रदेव अप्रसन्न होते हैं उस पर उनकी भी प्रसन्नता नहीं रहती। अतः इन्द्र की दो आंखों के साथ मन्त्रियों की ६६८ आंखों को सम्मिलित करने से इन्द्रदेव 'सहस्राक्ष' बन जाता है । वृत्तिकार ने यह भी लिखा है कि हजार आंखों की जितनी ज्योति होती है, उतनी ज्योति इन्द्र महाराज की दो आंखों में है। * इसलिए इन्द्रदेव को 'सहस्राक्ष' कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं है, क्योंकि शास्त्रकारों ने केवलज्ञान की दृष्टि से भगवान को अनन्त चक्षु कहा है।
अब सूर्य की उपमा देकर बहुश्रुत का वर्णन करते हैं ।
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जहा से तिमिरविद्धंसे, उत्तिट्ठन्ते दिवायरे ।
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जलन्ते इव तेएण, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २४ ॥ यथा स तिमिर - विध्वंसकः, उत्तिष्ठन्दिवाकरः ।
ज्वलन्निव तेजसा, एवं भवति बहुश्रुतः ॥ २४ ॥
पदार्थान्वयः—– जहा—यथा, सेवह, , दिवायरे— सूर्य, तिमिर — अन्धकार को, विद्धंसे — विध्वंस करने वाला, उत्तिट्ठन्ते—– सूर्य की तरह, जलन्ते इव तेएण - तेज़ से प्रदीप्त, एवं इस प्रकार - तप - तेज से, बहुस्सुए — बहुश्रुत तेजस्वी, हवइ — होता है ।
मूलार्थ — जैसे अन्धकार को नष्ट करने वाला उदय होता हुआ सूर्य अपने तेज से तेजस्वी होता है उसी प्रकार बहुश्रुत भी अपने तप तेज से तेजस्वी होता है।
टीका — जैसे सूर्य उदित होकर अपने तेज की प्रदीप्त ज्वालाओं को चारों ओर फैला हुआ अन्धकार का नाश करने वाला होता है, ठीक उसी प्रकार बहुश्रुत भी मिथ्यात्व - रूप अन्धकार को नष्ट
यदन्ये नेत्राणां सहस्रेण पश्यन्ति तदसौ द्वाभ्यां नेत्राभ्यां साधिकं पश्यतीति सहस्राक्ष इत्युच्यते इति सम्प्रदायः । भावविजयगणिसमर्थितवृत्तौ ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 396 / बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झणं