SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - यथा स चातुरन्तः चक्रवर्ती महर्द्धिकः । - चतुर्दशरलाधिपतिः, एवं भवति बहुश्रुतः ॥ २२ ॥ पदार्थान्वयः—जहा—यथा, से—वह, चाउरन्ते–चारों दिशाओं के अन्त पर्यन्त राज्य करने वाला (भरत क्षेत्र की अपेक्षा), चक्कवट्टी-चक्रवर्ती, महिड्ढिए—महा ऋद्धि वाला, चोद्दस-चौदह, रयणाहिवई-रत्नों का स्वामी, एवं—इसी प्रकार, बहुस्सुए—बहुश्रुत, हवइ होता है। मूलार्थ जैसे चारों दिशाओं में राज्य करने वाला चक्रवर्ती महाऋद्धि वाला और चौदह रत्नों का स्वामी होता है उसी प्रकार बहुश्रुत होता है। ___टीका–चक्रवर्ती का राज्य चारों दिशाओं की सीमा तक होता है, जैसे कि पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशा में समुद्र तक और उत्तर दिशा में हिमवन्तपर्यन्त उसका राज्य हुआ करता है, इसीलिए उसके राज्य को चतुरन्त कहते हैं। . वह गज, अश्व, रथ और पदाति—इन चारों प्रकार की सेनाओं से शत्रुओं का संहार करता है, एवं वैक्रिय आदि ऋद्धियों के होने से महाऋद्धि वाला होता है और वह १. सेनापति २. गाथापति, ३. पुरोहित, ४. गज, ५. तुरङ्ग, ६. वर्धकि, ७. स्त्री, ८. चक्र, ६. छत्र, १०. चर्म, ११. मणि, १२. काकिणी, १३. खड्ग और १४. दण्ड, इन चौदह रनों का स्वामी होता है तथा नव प्रकार की निधियों का अधिपति होता है। . . जिस प्रकार चक्रवर्ती में उक्त गुण विद्यमान होते हैं उसी प्रकार बहुश्रुत भी उक्त प्रकार के गुणों से विभूषित होता है। जैसे कि चक्रवर्ती की भांति बहुश्रुत की चतुरंगिणी सेना—दान-शील-तप और भावना है, इन्हीं के द्वारा वह अपने रागद्वेषादि अन्तरंग शत्रओं का संहार करता है। जिस प्रकार चक्रवर्ती चारों दिशाओं का अन्त करने वाला होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी चारों गतियों का अन्त कर देता है, फिर जैसे चक्रवर्ती के पास वैक्रिय आदि लब्धियां होती हैं उसी प्रकार आमर्षोषध्यादि लब्धियां तथा पुलाक आदि लब्धियां बहुश्रुत की महा ऋद्धियां हैं। चक्रवर्ती के चौदह रत्नों के समान बहुश्रुत चौदह पूर्वो का स्वामी होता है। जिस प्रकार चक्रवर्ती की कीर्ति चारों दिशाओं में उसके उक्त साधनों से फैल जाती है, उसी प्रकार ज्ञानादि गुणों के प्रभाव से बहुश्रुत की कीर्ति का भी चारों दिशाओं में प्रसार हो जाता है। अब इन्द्र की उपमा से बहुश्रुत की स्तुति करते हैं जहा से सहस्सक्खे, वज्जपाणी पुरन्दरे । ... सक्के देवाहिवई, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २३ ॥ ... यथा स सहस्राक्षः, वज्रपाणिः पुरन्दरः । शक्रो देवाधिपतिः, एवं भवति बहुश्रुतः ॥ २३ ॥ पदार्थान्वयः-जहा—यथा, से—वह, सहस्सक्खे सहस्राक्ष, वज्जपाणी–वज्रपाणी-वज्र हाथ में श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 395 । बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy