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________________ यहां पर सिंह के समान तो बहुश्रुत है और उसकी तीक्ष्ण दाढों के समान नैगमादि सात नय हैं और उदग्रता के समान बहुश्रुत के प्रतिभा आदि गुण हैं एवं मृगों के सदृश अन्यतीर्थी हैं। जैसे वन के अन्य जीव सिंह का किसी प्रकार से भी तिरस्कार नहीं कर सकते, किन्तु उससे सदा भय-भीत रहते हैं, उसी प्रकार अन्यतीर्थी लोग भी बहुश्रुत को किसी प्रकार से पराजित नहीं कर सकते, किन्तु स्वयं पराजित हो जाते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि कोई पदार्थ स्याद्वाद की मुद्रा का उल्लंघन नहीं कर सकता। अतएव किसी भी प्रतिवादी का सिद्धान्त स्याद्वाद के सिद्धान्त की अवहेलना करने में समर्थ नहीं हो सकता। इसीलिए वह सिंह की तरह अधृष्य और अजेय है। यहां पर मृग शब्द वन में रहने वाले सभी जीवों का उपलक्षक है—'मृगाणामारण्यजन्तूनाम्' इति। अब बहुश्रुत का वासुदेव की उपमा से वर्णन करते हैं जहा से वासुदेवे, संखचक्कगदाधरे । अप्पडिहयबले जोहे, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २१ ॥... यथा स वासुदेवः, शंखचक्रगदाधरः । __ अप्रतिहतबलो योधः, एवं भवति बहुश्रुतः ॥ २१ ॥ पदार्थान्वयः-जह-जैसे, से—वह, वासुदेवे–वासुदेव, संख-चक्क-गदा-धरे—शंख, चक्र, गदा को धारण करने वाला, अप्पडिहय—जिसका कोई पराभव न कर सके, बले-बलवान्, जोहे-सुभट है, एवं—इसी प्रकार, बहुस्सुए—बहुश्रुत, हवइ—होता है। . मूलार्थ-जैसे वह वासुदेव शंख, चक्र, गदा के धारण करने वाला और अप्रतिहतबल रखने वाला, अति बलवान् तथा संग्राम में महान् योद्धा होता है उसी प्रकार बहुश्रुत है। टीका—वासुदेव के चक्र, धनुष, खड्ग, मणि, गदा, वनमाला और शंख ये सात रत्ल प्रतिपादित किए गए हैं, किन्तु इनमें शंख, चक्र और कौमोदकी गदा ये तीन प्रधान रत्न माने गए हैं। इसी प्रकार बहुश्रुत में अनेक गुणों के विद्यमान होने पर भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र ये तीन प्रधान गुण-रत्न हैं। जैसे वासुदेव युद्ध में शत्रुओं का पराभव करता है उसी प्रकार बहुश्रुत भी काम-क्रोधादि रूप अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेता है, तथा जैसे वासुदेव बल से परिपूर्ण होता है वैसे ही बहुश्रुत भी अपने स्वाभाविक प्रतिभा-बल से ओत-प्रोत होता है, इसीलिए आगमों में लिखा है कि युद्ध में शूरवीर वासुदेव होता है, तप में शूरवीर अनगार है, भोग में शूरवीर चक्रवर्ती और क्षमा में शूरवीर अर्हन् प्रभु हैं। यहां पर वासुदेव की उपमा के प्रतिपादन करने का अभिप्राय बहुश्रुत में अन्तरंग शत्रुओं की विजेतृता के निदर्शन से है। इस प्रकार वासुदेव के गुणों के सादृश्य से बहुश्रुत की प्रशंसा की गई है। अब चक्रवर्ती की उपमा से बहुश्रुत का वर्णन करते हैं जहा से चाउरन्ते, चक्कवट्टी महिड्ढिए । चोद्दसरयणाहिवई, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २२ ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 394 | बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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