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________________ सभा में किसी भी प्रतिवादी से संत्रस्त नहीं होता, किन्तु उसको पराजित करके स्वपक्ष और परपक्ष के लोगों की जयध्वनि से प्रतिध्वनित होता हुआ जिन धर्म का पूर्ण रूप से प्रभावक होता है। अतः प्रत्येक मुनि को अपने में बहुश्रुतता के सम्पादन का प्रयत्न करना चाहिए । अब हस्ती की उपमा के द्वारा बहुश्रुत का वर्णन करते हैंजहा करेणु-परिकिण्णे, कुंजरे सद्विहायणे । बलवन्ते अप्पडिहए, एवं हवइ बहुस्सु ॥ १८ ॥ यथा करेणुपरिकीर्णः कुञ्जरः षष्ठिहायनः । बलवानप्रतिहतः, एवं भवति बहुश्रुतः ॥ १८ ॥ पदार्थान्वयः—–जहा—जैसे, करेणुपरिकिण्णे - हथनियों से घिरा हुआ, कुंजरे – हस्ती, सहायणे – साठ वर्ष का, बलवन्ते – बलवान्, अप्पडिहए— अप्रतिहत न हारने वाला होता है, एवं — इसी प्रकार, बहुस्सुए — बहुश्रुत, हवइ — होता है । मूलार्थ — जैसे साठ वर्ष की आयु वाला, बलवान् और किसी से न हारने वाला हस्ती अपनी हथनियों से चारों ओर से घिरा हुआ शोभा पाता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी सुशोभित होता है । टीका - इस गाथा में परिवार - युक्त वृद्ध हस्ती की उपमा से बहुश्रुत को सर्वप्रधान और अधृष्ट. बताने का प्रयत्न किया गया है, अर्थात् जैसे साठ वर्ष का हाथी अपनी हथनियों के परिवार से घिरा हुआ अपूर्व शोभा को प्राप्त होता है तथा बलयुक्त होने से किसी अन्य मदयुक्त हाथी से वह तिरस्कृत नहीं होता, उसी प्रकार बहुश्रुत भी अधिक दीक्षा - पर्याय से अपने अनुभव - बल में उत्तरोत्तर वृद्धि करता हुआ औत्पातिकी आदि चार प्रकार की बुद्धियों से परिवृत होकर अन्य वादियों से पराजित नहीं होता । जिस प्रकार साठ वर्ष तक हस्ती का बल बढ़ता रहता है और उसके परिवार में वृद्धि होती रहती है, उसी प्रकार बहुश्रुत में भी नाना प्रकार की विद्याओं और शास्त्रों का अनुभव रूप बल उत्तरोत्तर बढ़ता चला जाता है और उसके शिष्य परिवार में भी वृद्धि होती रहती है । जिस समय इस आत्मा में ज्ञान-क्रिया के साथ-साथ त्याग का बल बढ़ जाता है उस समय इसका प्रभाव सर्वोपरि हो जाता है तब स्थविर-पद से विभूषित होने वाला वह बहुश्रुत संसार के मायिक पदार्थों और संसार के अन्य क्षुद्र जीवों में से किसी से भी प्रभावित नहीं हो सकता, प्रत्युत उन सब पर उसका पूर्ण प्रभाव रहता है। अब वृषभ की उपमा से बहुश्रुत का वर्णन करते हैं— जहा से तिक्खसिंगे, जायखन्धे विरायई । वस जूहाहिवई, एवं हवइ बहुस्सु ॥१६ ॥ यथा स तीक्ष्णशृङ्गः, जातस्कन्धो विराजते । वृषभो यूथाधिपतिः, एवं भवति बहुश्रुतः || १६ || श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 392 / बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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