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जिस प्रकारं उक्त गुणों के प्रभाव से वह घोड़ा राजा आदि को अतिप्रिय लगता है उसी प्रकार ज्ञान और क्रिया से युक्त साधु भी जनता के लिए श्रद्धेय होता है। इसी आशय से उक्त गाथा में 'कन्थए—कंथक' शब्द का उल्लेख किया गया है। इसका अर्थ टीकाकार इस प्रकार लिखते हैं—'अथवा शस्त्रादीनां प्रहाराद्रणे निर्भीकः कन्थक उच्यते' अर्थात् शस्त्रादि के प्रहार से रण में जो किसी प्रकार का भय नहीं खाता, उस घोड़े को कन्थक कहते हैं। उस आकीर्ण जाति के अश्व के समान बहुश्रुत साधक भी गुणों का आश्रयभूत हो जाता है। ___यहां पर कम्बोज देश के समान जैन वृत्ति और जाति तथा वेग आदि गुणों के समान साधु-वृत्ति के गुणों को समझना चाहिए। कम्बोज देश के अश्व अन्य देशों के अश्वों से श्रेष्ठ माने गए हैं, इसीलिए इनके नाम का निर्देश किया गया है। अब फिर इसी विषय में कहते हैं
जहाऽऽइण्ण-समारूढे, सूरे दढपरक्कमे । - उभओ नन्दिघोसेणं, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ १७ ॥
यथाऽऽकीर्ण-समारूढ़ः, शूरो दृढपराक्रमः ।
उभयतो नंदिघोषेण, एवं भवति बहुश्रुतः ॥ १७ ॥ पदार्थान्वयः-जहा—जैसे, आइण्ण-आकीर्ण घोड़े पर, समारूढे—चढ़ा हुआ, सूरे—सुभट, दढपरक्कमे-दृढ़ पराक्रम वाला, उभओ—दोनों प्रकार से, नन्दिघोसेणं नन्दिघोष शब्दों से युक्त, एवं इसी प्रकार, बहुस्सुए—बहुश्रुत, हवइ—होता है।
मूलार्थ जैसे उत्तम जाति वाले घोड़े पर चढ़ा हुआ दृढ़ पराक्रम वाला सुभट, दोनों ओर से नन्दिघोष शब्दों से युक्त हुआ शोभा पाता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी शोभा पाया करता है।
टीका-जैसे वेग आदि गुणों से सम्पन्न विशिष्ट जाति के घोड़े पर चढ़ा हुआ दृढ़पराक्रमी शूरवीर नन्दिघोष और जयध्वनि के शब्दों से प्रतिध्वनित होता हुआ सुशोभित होता है, उसी प्रकार विशिष्ट ज्ञान और क्रिया के द्वारा बहुश्रुत की भी शोभा होती है। तात्पर्य यह है कि जैसे वह सुभट किसी के द्वारा पराजित नहीं होता वैसे ही बहुश्रुत को कोई प्रतिवादी पराजित नहीं कर सकता तथा जिस प्रकार सुभट के दोनों ओर नन्दिघोष वादित्रों के अथवा जयध्वनियों के शब्द होते हैं, उसी प्रकार रात्रि और दिन के स्वाध्याय-घोष के साथ बहुश्रुत रहता है, जिससे कि परवादी भी उसका जय-जय शब्दों के द्वारा स्वागत करते हैं. अर्थात उसकी विजय का लोहा मानते हैं। नन्दिघोष द्वादश तर्य ध्वनिरूप होता है—'नन्दिघोषेण द्वादशतूर्यध्वनिरूपेण' । - यहां पर इतना और समझ लेना चाहिए कि शास्त्रकार ने बहुश्रुत को आकीर्ण जाति के घोड़े पर चढ़े हुए पराक्रमी सुभट की जो उपमा दी है, वह सर्वथा उपयुक्त है। यहां पर जिन-प्रवचन ही आकीर्ण जाति का अश्व है, अर्थात् जिन-प्रवचन रूप अश्व पर चढ़ा हुआ बहुश्रुत रूप सुभट शास्त्र
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 391 / बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं