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अपेक्षा कुछ विलक्षण शोभा प्राप्त करने वाले हो जाते हैं।
तात्पर्य यह है कि जहां पर आधार पूर्णतया शुद्ध हो और उसी के अनुसार यदि वहां पर आधेय पदार्थ भी शुद्ध ही मिल जाए, तब तो उन दोनों की शोभा निस्सन्देह अपूर्व ही हो जाती है। जिस प्रकार शंख में डाला हुआ दूध कालुष्य और अम्लता को धारण नहीं करता, उसी प्रकार बहुश्रुत भिक्षु में धर्म, कीर्ति और श्रुत को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुंचती। इस सारे कथन का सारांश यह है कि जिस प्रकार शंख में रखा हुआ दूध अपने गुणों से हर प्रकार से विशेषता को प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार बहुश्रुत में रहे हुए धर्म, कीर्ति और श्रुत भी अपने स्वरूप में विशेष उन्नति को प्राप्त करते हैं, क्योंकि जिस गच्छ में बहुश्रुत साधु होंगे, उस गच्छ की संसार में विशेष प्रतिष्ठा होगी, उसकी ओर भावुक गृहस्थों की रुचि बढ़ेगी, वे धर्म का श्रवण करेंगे, शास्त्रों का स्वाध्याय करेंगे और धर्म के अनुष्ठान में प्रवृत्त होंगे, इसलिए बहुश्रुत के सम्बन्ध में उक्त धर्मादि गुणों में विशेषता का आना आवश्यक और सुनिश्चित है। अब इसी विषय को दूसरे दृष्टान्त से बताते हैं
जहा से कम्बोयाणं, आइण्णे कन्थए सिया । आसे जवेण पवरे, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ १६ ॥
यथा सः काम्बोजानां, आकीर्णः कन्थकः स्यात् ।
अश्वो जवेन प्रवरः, एवं भवति बहुश्रुतः.॥ १६ ॥ पदार्थान्वयः जहा—जैसे, से—वह, कम्बोयाणं-कम्बोज़ देश के जन्मे हुए घोड़े में, आइण्णे—शीलादि गुणों से युक्त, कन्थए—प्रधान, आसे—घोड़ा, सिया होता है जो, जवेण—गति से भी, पवरे—उत्तम है, एवं—इसी प्रकार, बहुस्सुए—बहुश्रुत, हवइ—होता है।
मूलार्थ—जैसे कम्बोज देश में उत्पन्न हुए घोड़े में शीलादि गुण होते हैं, उन गुणों से युक्त घोड़ा उत्तम माना जाता है और विचित्र गति के कारण भी उत्तम होता है उसी प्रकार बहुश्रुत को भी उत्तम माना गया है।
टीका—जैसे कम्बोज देश के उत्पन्न हुए घोड़ों में जो घोड़ा शीलादि गुणों से युक्त और निर्भीक अर्थात् ऊबड़-खाबड़ मार्ग में भी अस्खलित गति वाला तथा वादित्रादि के तुमुल शब्दों से भी त्रस्त न होने वाला है, और जो अपनी गति में भी अद्वितीय है वही घोड़ा उत्तम माना गया है उसी प्रकार बहुश्रुत भी ज्ञान और क्रिया के कारण ही प्रधानता को धारण करता है। तात्पर्य यह है कि जैसे वह अश्व वादित्रादि के शब्दों से त्रस्त नहीं होता उसी तरह बहुश्रुत भी वादियों के प्रवादों से भयभीत नहीं होता, किन्तु निर्भय होकर उन पर विजय प्राप्त करता है।
उक्त गाथा में आए हुए ‘आइण्णे'—आकीर्ण- शब्द का अर्थ है शुद्ध जाति का और कुलवान | क्योंकि जिसके जाति एवं कुल उत्तम होंगे उसी में गुणों का संचार होना स्वाभाविक है ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 390 । बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं