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टीका—इस गाथा में विद्या प्राप्ति की योग्यता के साधक गुणों का दिग्दर्शन कराया गया है अर्थात् जिन गुणों को धारण करने से मनुष्य, सद्विद्या की प्राप्ति के योग्य होता है उन्हीं का वर्णन प्रस्तुत गाथा में किया गया है। सदैव गच्छ अर्थात् समुदाय में रहना और गुरुजनों की आज्ञा से बाहर न होना ही गुरुकुलवास है तथा धर्म-व्यापार के योगों में स्थित रहने वाले को योगवान् अथवा अष्टाङ्ग-लक्षण योग का अभ्यास करने वाले को योगवान् कहा जाता है। अपि च अंगोपाङ्गरूप सूत्रों की आराधना के निमित्त आचाम्ल, निर्विकृत्यादि तप के करने वाले को उपधान तपवाला कहते हैं, अतः योगवान और उपधानवान होकर सदा गुरुजनों की आज्ञा में जो रहे वह विद्या-प्राप्ति के योग्य होता है। यदि किसी ने अपकार भी किया हो तो भी उस पर रोष न करे, किन्तु उक्त कृत्य को अपने ही किए हुए अशुभ कर्म का फल समझकर अपराध करने वाले पर भी प्रीति का ही व्यवहार करने वाला हो तथा जिस कार्य के करने से प्राणिवंर्ग को सुख उपजे और आचार्यादि गुरुजनों को भी प्रसन्नता हो, उसी कार्य का अनुष्ठान करने वाला हो। यदि किसी ने प्रतिकूल व कठोर भाषण किया हो तो उसके साथ भी प्रिय भाषण करने वाला हो, अर्थात् उसको भी प्रिय वचनों में ही उत्तर देने की चेष्टा करे। ये सब लक्षण शिक्षा प्राप्त करने की योग्यता रखने वाले विनीत पुरुष के होते हैं। इन से विपरीत आचरण करने वाला अविनीत कहलाता है।
_ ये पूर्वोक्त शिक्षाएं इस आत्मा को बहुश्रुतता के योग्य बना देती हैं, क्योंकि इन्हीं के द्वारा बहुश्रुत पद की प्राप्ति होती है। अब सूत्रकार बहुश्रुत के प्रतिपत्तिरूप आचार की प्रशंसा कुछ दृष्टान्तों के द्वारा करते हैं। यथा- . - जहा संखम्मि पयं, निहियं दुहओ वि विरायइ ।
एवं बहुस्सुए भिक्खू, धम्मो कित्ती तहा सुयं ॥१५॥
यथा शंखे पयो, निहितं द्विधापि विराजते ।
एवं बहुश्रुते भिक्षौ, धर्मः कीर्तिस्तथा श्रुतम् ॥ १५ ॥ ___ पदार्थान्वयः जहा—जैसे, संखम्मि–शंख में, पयं—दूध, निहियं-रखा हुआ, दुहओ—दो प्रकार से, बिरायइ–विराजता है—शोभा पाता है, एवं—इसी प्रकार, बहुस्सुए—बहुश्रुत, भिक्खू भिक्षु में, धम्मो धर्म, कित्ती–कीर्ति, तहा–तथा, सुयं श्रुत शोभा पाता है।
मूलार्थ जैसे शंख में रखा हुआ दूध दोनों प्रकार की उज्ज्वलता से शोभा पाता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भिक्षु में धर्म, कीर्ति और श्रुत अर्थात् आगम ज्ञान शोभा पाते हैं।
टीकाशंख में डाला हुआ दूध कुछ विशिष्ट शोभा को प्राप्त कर लेता है, क्योंकि एक तो दूध स्वयं उज्ज्वल होता है, तिस पर शंख में डालने से शंख की उज्ज्वलता भी उसके साथ मिल जाती है, अर्थात् शंख और दूध दोनों एक दूसरे की श्वेतता को ग्रहण करते हुए कुछ विलक्षण रूप से ही सुशोभित होते हैं। इसी प्रकार बहुश्रुत भिक्षु में रहे हुए धर्म, कीर्ति और श्रुत अन्य साधारण जनों की
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 389 / बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं