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________________ पदार्थान्वयः—–— कलह - डमर – कलह और प्राणिघात आदि के, वज्जिए — वर्जने वाला, बुद्धे – बुद्धिमान्, अभिजाइए—– संयम का निर्वाह करने वाला, हिरिमं—लज्जा वाला, पडिली - इन्द्रियों को वश में करने वाला, सुविणीए – सुविनीत, त्ति - इस प्रकार से, बुच्चई- कहा जाता है। मूलार्थ – कलह और डमर अर्थात् प्राणिघात के वर्जने वाला, बुद्धिमान, ग्रहण किए हुए संयम भार का निर्वाह करने वाला, अकार्य करने से लज्जा करने वाला और इन्द्रियों तथा मन को वश में करने वाला सुविनीत कहां जाता है, अर्थात् उक्त लक्षण जिसमें हों उसे सुविनीत कहते हैं । टीका - इस गाथा में भी विनीत के लक्षणों का निर्देश करते हुए कहा गया है कि बुद्धिमान् साधक वाणी और मुष्टि आदि के द्वारा युद्ध करने वाला न हो, तथा संयम के भार को उठाने में अपनी कुलीनता का परिचय दे, अर्थात् ग्रहण किए हुए संयम का पूर्ण रूप से निर्वाह करे । अकार्य में प्रवृत्त होने से लज्जा करे और बिना कारण गुरुजनों के पास से इधर-उधर न जाए। ये सब विनयवान् के लक्षण हैं। इन गुणों के आने से विद्या की प्राप्ति शीघ्र होती है । ये पन्द्रह विनीत के गुणस्थान. कहे जाते हैं। इनका समुच्चयात्मक परिचय इस प्रकार है, १. गुरुजनों के बराबर न बैठना, २. चपलता का त्याग करना, ३. माया - रहित होना, ४ . कुतूहल का त्याग करना, ५ . किसी का भी तिरस्कार न करना, ६ . दीर्घकाल तक रोष न रखना, ७. मित्रों पर उपकार करना, ८. विद्या का मद न करना, ६ . आचार्यादि के मर्म को प्रकट न करना, १०. मित्रों पर क्रोध न करना, ११. अपराध होने पर भी मित्र के दोषों को न कहना और परोक्ष में अमित्र के भी गुणों का ही वर्णन करना, १२. कलह और डमर अर्थात् जीव-हिंसा का त्याग करना, १३. गुरुकुल में वास करना; १४. लज्जाशील होना और १५. प्रतिसंलीन अर्थात् जितेन्द्रिय होना । ये पन्द्रह स्थान विनीत पुरुष के कहे जाते हैं। ये ही बहुश्रुतता के परिचायक गुण हैं। उक्त गुणों से विभूषित होने वाले व्यक्ति को जो लाभ होता है, अब शास्त्रकार उसी के विषय में कहते हैं— वसे गुरुकुले निच्चं, जोगवं उवहाणवं ं । पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं लुमरिहइ ॥ १४ ॥ वसेद् गुरुकुले नित्यं, योगवानुपधानवान् । प्रियङ्करः प्रियंवादी, स शिक्षां लब्धुमर्हति || १४ || पदार्थान्वयः—–—गुरुकुले—–—गुरुकल में, निच्चं – सदा, वसे – वास करे, जोगवं — योगवान्, उवहाणवं— उपधान तप वाला, पियंकरे -- प्रिय करने वाला, पियंवाई — प्रिय बोलने वाला, से—- वह, सिक्ख – शिक्षा, लद्धुं – प्राप्त करने के, अरिहइ – योग्य होता है। मूलार्थ - जो व्यक्ति गुरुकुल में वास करने वाला, समाधि और उपधान तप करने वाला, प्रिय करने और प्रिय बोलने वाला हो वही शिक्षा प्राप्ति के योग्य होता है । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 388 / बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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