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________________ मन में किसी प्रकार का अहंकार नहीं करता, अपितु वह फलभार-नमित वृक्ष की तरह पहले से भी अधिक विनम्र हो जाता है। ये सब विनीतता के लक्षण हैं, इनको धारण करने वाला विनयवान् कहा जाता है। उक्त गाथा में आया हुआ 'अल्प' शब्द अभाव का वाचक है और 'च' शब्द का प्रयोग अवधारण अर्थ में है। अब विनीत के अन्य लक्षणों का वर्णन करते हैं न य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पइ । अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासई ॥ १२ ॥ न च पापपरिक्षेपी, न च मित्रेभ्यः कुप्यति । - अप्रियस्यापि मित्रस्य, रहसि कल्याणं भाषते || १२ ॥ पदार्थान्वयः-य-और, न—नहीं, पावपरिक्खेवी पाप और पर-परिक्षेप करता है, य—और, न–नहीं, मित्तेसु-मित्रों के लिए, कुप्पइ–कोप करता है, अप्पियस्सावि मित्तस्स–अप्रिय मित्र को भी, रहे—एकान्त में, कल्लाण—कल्याणकारी वचन, भासई कहता है। मूलार्थ-धिनीत व्यक्ति किसी भी व्यक्ति पर दोषारोपण नहीं करता, मित्रों पर कोप नहीं करता और अप्रिय मित्र का भी एकान्त में गुणानुवाद ही करता है। टीका—जो व्यक्ति विनीत होता है वह गुरुजनों के अकस्मात् समिति, गुप्ति आदि गुणों से विचलित हो जाने पर भी उनका तिरस्कार कदापि नहीं करता तथा मित्रों पर कुपित नहीं होता। कदाचित् मित्र से कोई अपराध हो भी जाए तो भी उसको हित-शिक्षा मात्र भले ही दे दे, परन्तु उस पर क्रोध नहीं करता, क्योंकि मनुष्य का किसी बात में भूल कर देना कुछ आश्चर्य की बात नहीं है और किसी अप्रिय मित्र के अपराधों को जानकर भी परोक्ष में उसका अवर्णवाद-निन्दा नहीं करता, अपितु कभी काम पड़े तो उसका गुणानुवाद ही करता है। नीतिकारों ने कहा भी है कि . “एकसुकृतेन दुष्कृतशतानि ये, नाशयन्ति ते धन्याः।। - न त्वेकदोषजनितो, येषां कोपः स च कृतघ्नः ॥' · तथा 'मित्तेसु-मित्रेभ्यः' यहां चतुर्थी विभक्ति के अर्थ में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया गया है। अब इसी विषय में फिर कहते हैं कलह-डमर-वज्जिए, बुद्धे अभिजाइए । हिरिमं पडिसंलीणे, सुविणीए त्ति वुच्चई ॥ १३ ॥ 'कलह-डमर-वर्जितः, बुद्धोऽभिजातिकः ।. ह्रीमान् प्रतिसंलीनः, सुविनीत इत्युच्यते || १३ ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 387 / बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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