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________________ (२) चपलता-रहित होना—चार प्रकार की चपलताओं का परित्याग करना, जैसे कि गतिचपलता, स्थिति-चपलता, भाषा-चपलता और भाव-चपलता, इस प्रकार चपलता के ये चार भेद हैं। इनमें-अतिशीघ्रता से चलना गति-चपलता है, बैठे हुए बिना प्रयोजन हाथ-पैर हिलाते रहना स्थिति-चपलता है। असत्य और असम्बद्ध भाषण एवं विकथा करना भाषा-चपलता कहलाती है और एक कार्य की समाप्ति से पूर्व ही दूसरे का आरम्भ कर देना अथवा पदार्थ के ग्रहणं में अधिक चंचलता करना भाव चपलता है। इन चार प्रकार की चपलताओं का त्याग करने वाला विनीत कहलाता है, क्योंकि जहां पर चपलता होती है वहां पर विनय-धर्म की स्थिति नहीं हो सकती। (३) अमायी—कपटरहित होना, अर्थात् गुरु आदि से किसी प्रकार का छलयुक्त व्यवहार न करना। (४) अकुतूहली—कुतूहल से रहित अर्थात् इन्द्रजाल और नाटक आदि का न देखना तथा अन्य उपहास-जनक क्रियाओं में रुचि न रखने वाला विनीत कहा जाता है। इन अवगुणों का त्याग ही करना चाहिए। अब विनीतता के अन्य स्थानों का वर्णन करते हैं अप्पं च अहिक्खिवइ, पबन्धं च न कुव्वई । मेत्तिज्जमाणो भयई, सुयं लधुं न मज्जई ॥ ११ ॥ अल्पं चाधिक्षिपति, प्रबन्धं च न करोति । मैत्रीयमाणो भजते, श्रुतं लब्ध्वा न माद्यति || ११ || . पदार्थान्वयः-अप्पं थोड़ा भी, च–निश्चय में, अहिक्खिवइ–तिरस्कार नहीं करता, पबन्धं—क्रोध का प्रबन्ध, न कुव्वई—नहीं करता, च—और, मेत्तिज्जमाणो–मित्र की मित्रता को, भयई–सेवन करता है, सुयं श्रुत को, लर्बु–प्राप्त करके, न मज्जई-अहंकार नहीं करता। मूलार्थ विनीत व्यक्ति किसी का थोड़ा-सा भी तिरस्कार नहीं करता, 'क्रोध का प्रबन्ध अर्थात्, आवेश चिरकाल तक नहीं रखता, मित्र की मित्रता का पालन करता है और श्रुत को प्राप्त करके गर्व नहीं करता। टीका—जो विनीत अर्थात् विनयशील होता है वह स्वल्पमात्र भी किसी का तिरस्कार नहीं करता, अपितु तिरस्कार के बदले सत्कार के लिए प्रस्तुत रहता है। यदि कभी किसी कारणवश क्रोध आ जाए तो उसे शीघ्र ही शान्त कर लेता है और उस क्रोध को चिरस्थायी नहीं होने देता। तात्पर्य यह है कि उसकी चेष्टा अनन्तानुबन्धी क्रोध के समान नहीं होती, किन्तु उसका क्रोध संज्वलन मात्र ही होता है। यदि कोई उसका मित्र बन गया हो तो उसके साथ भी वह सदा मित्रता का ही बर्ताव करता है और यदि हो सके तो उस पर उपकार ही करता है और यदि उपकार करने की उसमें किसी प्रकार की शक्ति न हो तो वह कृतन तो कदापि नहीं बनता तथा विनीत पुरुष श्रुत-विद्या को प्राप्त करके श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 386 / बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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