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इन्द्रियों को वश में न रखने वाला, संविभाग न करने वाला और अप्रीति रखने वाला अविनयी अर्थात् अविनीत कहलाता है।
टीका-बिना विचार किए बोलने वाला, मित्रों के साथ द्रोह करने वाला, अहंकारी, लोभी, इन्द्रियों के अधीन रहने वाला, असंविभागी—किसी साधारण वस्तु का भी संविभाग न करने वाला
और सबके साथ अप्रीतियुक्त व्यवहार करने वाला अविनीत कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के अवगुणं जिसमें विद्यमान हों उसको अविनीत–विनयगुणरहित कहते हैं।
ये सब मिलकर अविनीत के चौदह स्थान हैं। इनका समुच्चयरूप से नाम-निर्देश इस प्रकार है—१. क्रोध, २. क्रोधस्थिति-करण, ३. मैत्री त्याग, ४. विद्या का मद, ५. गुरुजनों के छिद्रों को देखना, ६. मित्र पर कोप करना, ७. प्रिय मित्र का भी परोक्ष में अवर्णवाद करना, ८. असम्बद्ध भाषण करना, ६. मित्र-दोह करना, १०. अहंकार करना, ११. लोभी होना, १२. इन्द्रियों का वशवर्ती होना, १३. वस्तु का संविभाग-बंटवारा ठीक न. करना, १४. अप्रीति उत्पन्न करने वाले कार्य करना। इन चौदह हेतुओं से इस जीव में अविनीतता उत्पन्न हो जाती है। और उसका फल यह होता है कि इन अवगुणों के कारण अविनीत हुआ पुरुष निर्वाण-पद को प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि उसमें निर्वाण-प्राप्ति की योग्यता नहीं रहती। अतः विचारशील पुरुषों को इन अवगुणों का परित्याग करके विनीतभाव को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। ____ अब शास्त्रकार सुविनीत के विषय में कहते हैं
अह पन्नरसहिं ठाणेहिं, सुविणीए त्ति वुच्चई । नीयावत्ती अचवले, अमाई अकुऊहले ॥ १० ॥
अथ पंचदशभिः स्थानैः, सुविनीत इत्युच्यते ।
. नीचवर्त्यचपलः, अमाय्यकुतूहलः ॥ १० ॥ पदार्थान्वयः-अह–अब, पन्नरसहिं—पंचदश, ठाणेहिं—स्थान में वर्तने से, सुविणीएसुविनीत, त्ति—इस प्रकार वुच्चई—कहा जाता है, नीयावत्ती–नीचवर्ती, अचवले–चपलता से रहित, अमाई कपट से रहित, अकुऊहले—कुतूहल से रहित। '
मूलार्थ (यह बताते हैं कि) अब पंचदश स्थानों में वर्तन से साधक सुविनीत कहा जाता है, जैसे कि गुरु से नीचे वर्तने वाला, चपलता से रहित, छल से रहित और कुतूहलादि से रहित । ____टीका-अविनीत के चौदह स्थानों के अनन्तर अब विनीत के पन्द्रह स्थानों का वर्णन करते हैं। इन अनन्तरोक्त पंचदश स्थानों में स्थित अर्थात् आगे वर्णित चौदह गुणों से युक्त साधक ही विनीत कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि जिस जीव में ये पन्द्रह लक्षण-विद्यमान हों वही सुविनीत है।
(१) नीचवर्ती—गुरुजनों से अपना आसन नीचा रखना, उनकी अपेक्षा पुराने और कम मूल्य के वस्त्रादि का प्रयोग करना, यह द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से नीचा बर्ताव अर्थात् नम्रता का बर्ताव है। |
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 385 / बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं ।