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अपि पापपरिक्षेपी, अपि मित्रेभ्यः कुप्यति । सुप्रियस्यापि मित्रस्य, रहसि भाषते पापकम् || ८ ||
पदार्थान्वयः –—–— अवि—संभावना में, पाव— स्खलनादि के कारण से, परिक्खेवी - आचार्यादि का तिरस्कार करने वाला, अवि- संभावना में, मित्तेसु — मित्रों पर, कुप्पइ—–— कोप करता है, अवि—संभावना में, सुप्पियस्स — अति प्रिय, मित्तस्स - मित्र के, रहे — एकान्त में, पावयं-अवगुण, भास — कहता है ।
मूलार्थ - जो अविनीत होता है वह गुरु आदि के विचलित होने पर उनका तिरस्कार करता है, मित्रों पर कोप करता है, अति प्यारे मित्र के भी एकान्त में अवगुण बताता है ।
टीका - इस गाथा में अविनीत के तीन लक्षण बताए गए हैं - १. यदि किसी कारण से आचार्यादि पूज्य महापुरुष समिति वा गुप्ति आदि में विचलित हो जाएं तो उनका तिरस्कार करना, २ . मित्रों पर कोप करना, ३. अपने अति प्रिय मित्र के भी एकान्त में अवगुण बताना। अब तक पूर्व की गाथा में चार और इस गाथा में तीन हस प्रकार सात लक्षण अविनीत के बताए गए हैं।
उक्त गाथा में आए हुए 'पावपरिक्खेवी – पापपरिक्षेपी' का वृत्तिकार भी यही अर्थ करते हैं,
यथा—
'असौ पापैः कथञ्चित् समित्यादिषु स्खलितो लक्षणैः परिक्षिपति - तिरस्कुरुते, इत्येवंशीलः पापपरिक्षेपी, आचार्यादीनामिति गम्यते । '
अर्थात् यदि किसी निमित्तवश वृद्धों से भूल हो गई हो तो उस भूल को मुख्य रखकर उनका जो तिरस्कार करता है, वह पापपरिक्षेपी- अविनीत कहलाता है। इसके अतिरिक्त बिना ही कारण मित्रों पर कुपित होना और परोक्ष में अपने अति प्रिय मित्र के भी अवगुण प्रकट करना अविनीत पुरुष का कार्य है।
अब अविनीत के अन्य लक्षणों को दिखाते हैं—
पइन्नवाई दुहिले, थद्धे लुद्धे अनिग्गहे । असंविभागी अवियत्ते, अविणीए त्ति वुच्चई ॥ ६ ॥
प्रकीर्णवादी द्रोहशीलः, स्तब्धो लुब्धोऽनिग्रहः | असंविभाग्यप्रीतिकरः, अविनयीत्युच्यते || ६ ||
पदार्थान्वयः—–पइन्नवाई ——– असंबद्धभाषी, दुहिले – द्रोह करने वाला, थद्धे— स्तब्ध — अहंकार करने वाला, लुद्धे– लोभी, अनिग्गहे—– असंयतेन्द्रिय, असंविभागी – संविभाग न करने वाला, अवियत्ते—अप्रीतिकर, अविणीए - अविनयवान्, त्ति —– इस प्रकार, बुच्चई - कहा जाता है।
मूलार्थ — प्रकीर्णवादी अर्थात् असम्बद्ध भाषी, द्रोह करने वाला, अहंकारी और लोभी तथा श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 384 / बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झणं