________________
सूत्र में 'चउद्दसहिं ठाणेहिं' यहां तृतीया विभक्ति–'चतुर्दशसु स्थानेषु' इस सप्तमी विभक्ति के अर्थ में विभक्ति-व्यत्यय के नियम से प्रयुक्त हुई है एवं निर्वाण का दूसरा अर्थ परम शांति भी है, जिसका अभिप्राय यह है कि अविनीत के लिए शांति की प्राप्ति भी अशक्य है। अब शास्त्रकार उक्त स्थानों का नाम निर्देश करते हैं
अभिक्खणं कोही भवइ, पबन्धं च पकुव्वइ । __ मेत्तिज्जमाणो वमइ, सुयं लभ्रूण मज्जइ ॥ ७ ॥
अभीक्ष्णं क्रोधी भवति, प्रबन्धं च प्रकरोति । ___मैत्रीयमाणो वमति, श्रुतं लब्ध्वा माद्यति || ७ || पदार्थान्वयः–अभिक्खणं—बारम्बार, कोही–क्रोधी, भवइ होता है, च—और, पबन्धंक्रोध का प्रबन्ध, पकुव्वइ-करता है, मेत्तिज्जमाणो मित्रता के भाव को, वमइ छोड़ देता है, सुयं श्रुत को, लभ्रूण—प्राप्त करके, मज्जइ-अहंकार करता है। ___मूलार्थ—(अविनीत-साधक) बार-बार क्रोध करता है, क्रोध के प्रबन्ध का त्याग नहीं करता, मित्र की मित्रता को त्याग देता है और श्रुत के पढ़ने पर भी अहंकार करता है।
टीका बार-बार क्रोध करने वाला व्यक्ति भी विनय-धर्म से रहित होता है तथा क्रोध के प्रबन्ध का त्याग न करना भी अविनीतता का ही लक्षण है।
तात्पर्य यह है कि किसी निमित्त वश अथवा बिना निमित्त से क्रोध के आवेश में आने पर उसे मृदु वचनों से शान्त न करना, किन्तु उसे बढ़ाते ही जाना, अविनीतता का दूसरा स्वरूप है तथा मित्रता का परित्याग करना अर्थात् किसी व्यक्ति के साथ प्रथम की हुई मित्रता का परित्याग कर देना अथवा दीक्षा ग्रहण करने के समय पर छः काय के जीवों के साथ मैत्री धारण करने की जो प्रतिज्ञा की थी, उसको शिथिलाचार में प्रविष्ट होकर.त्याग देना तथा यदि किसी ने कोई उपकार किया हो तो उसको भूल जाना, अर्थात् कृतज्ञ होने के बदले कृतघ्न बन जाना अविनीतता है। स्थानांगसूत्र में लिखा है कि श्रावक चार प्रकार के होते हैं-१. माता-पिता के समान, २. भ्राता के समान, ३. मित्र के समान और ४. सपत्नी के समान। इनमें जो मित्र के समान बर्ताव करने वाले हितकारी हैं उन पर मित्र भाव को त्याग देना अविनीतता का तीसरा स्थान है तथा श्रुत-विद्या को प्राप्त करके गर्व करना, जैसे कि मेरे समान दूसरा कोई शास्त्रज्ञ नहीं है, यह अविनीतपन का चौथा स्वरूप है। सद्विद्या का फल नम्रता और तत्त्वज्ञान की प्राप्ति है, किन्तु उसको प्राप्त करके अहंकारयुक्त होना तो विनय-धर्म की विराधना ही है।
इस प्रकार अविनीतता के चतुर्दश स्थानों में से चार का तो वर्णन ऊपर आ चुका है अब शेष स्थानों का वर्णन किया जाता है
अवि पावपरिक्खेवी, अवि मित्तेसु कुप्पइ । सुप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे भासइ पावयं ॥ ८ ॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 383 / बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं