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________________ नाशीलो न विशीलः, न स्यादतिलोलुपः ।। अक्रोधनः सत्यरतः, शिक्षाशील इत्युच्यते ॥ ५ ॥ पदार्थान्वयः-असीले—शील-रहित, न—नहीं है, विसीले खंडितशील, न—नहीं है, अइलोलुए—अति लोलुप, न सिया-न होवे, अकोहणे क्रोध से रहित, सच्चरए–सत्य भाषण में रत, सिक्खासीले शिक्षाशील, त्ति—इस प्रकार, वुच्चई–कहा जाता है। ___ मूलार्थ शुद्ध आचार वाला, खंडित आचार से रहित, अलोलुप—रसों में मूर्छित न होने वाला, क्रोध-रहित और सत्य बोलने वाला साधक शिक्षाशील कहा जाता है। टीका शिक्षा के योग्य वही हो सकता है जो श्रेष्ठ आचार रखता हो। जिसका आचार खण्डित न हुआ हो, रसों में जिसकी आसक्ति बढ़ी हुई न हो और क्षमायुक्तता से युक्त एवं सत्यभाषण करने वाला हो। तात्पर्य यह है कि इन्हीं उक्त गुणों से वह शिक्षित होकर बहुश्रुत के पद को प्राप्त हो सकता है। सारांश यह है कि जिनकी शिक्षा ग्रहण करते समय सदाचार में दृढ़ता नहीं रहती वे न तो शिक्षा से विभूषित हो सकते हैं और न ही बहुश्रुत हो सकते हैं। इसीलिए इन उक्त सद्गुणों की ओर शिक्षाप्रेमी विद्यार्थियों को अवश्यमेव ध्यान देना चाहिए। इनके अतिरिक्त जो व्यक्ति इन उक्त गुणों की अवहेलना करके सद्विद्या के ग्रहण की रुचि रखते हैं, वे मानो अग्निशिखा से पुष्पों की प्राप्ति की आशा करते हैं। इससे यह बात भली-भांति सिद्ध हो जाती है कि बहुश्रुत होने के लिए उक्त गुणों की प्राप्ति ही मुख्य कारण है। बहुश्रुत और अबहुश्रुत होने में विनीत और अविनीत भाव की ही प्रधानता है, अतः विनीत भाव को समझने के लिए प्रथम अविनीतता के स्वरूप का वर्णन करते हैं अह चउद्दसहिं ठाणेहिं, वट्टमाणे उ संजए। अविणीए वुच्चई सो उ, निव्वाणं च न गच्छइ ॥६॥ अथ चतुर्दशसु स्थानेषु, वर्तमानस्तु संयतः, । अविनीत उच्यते स तु, निर्वाणञ्च न गच्छति ॥६॥ पदार्थान्वयः—अह—अब, चउद्दसहिं—चतुर्दश, ठाणेहिं—स्थानों से, वट्टमाणे वर्तमान, उ—पादपूर्त्यर्थ है, संजए–संयत-साधु, सो—वह, अविणीए—अविनीत, वुच्चई–कहा जाता है, उ—पूर्ववत् जानना, च-और, निव्वाणं-निर्वाण को, न गच्छइ–नहीं जाता। मूलार्थ इन अनन्तरोक्त चतुर्दश स्थानों में वर्तता हुआ साधु अविनीत कहा जाता है और वह निर्वाण अर्थात् मोक्ष को प्राप्त नहीं होता है। टीका—आगे कहे जाने वाले जो चौदह स्थान हैं उनमें स्थित हुआ साधु अविनीत कहा जाता है और वह मोक्ष को प्राप्त नहीं होता। यहां पर 'च' शब्द से इतना और समझ लेना चाहिए कि उसको इस लोक में ज्ञानादि की प्राप्ति भी नहीं हो सकती, अतः साधक को इन चौदह स्थानों में वर्तना नहीं चाहिए। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 382 । बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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