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________________ शास्त्राभ्यास नहीं कर सकता। इस प्रकार इन प्रतिबन्धक कारणों से शिक्षा की प्राप्ति न होने के कारण ऐसा व्यक्ति अबहुश्रुत रह जाता है। तात्पर्य यह है कि ये सब अबहुश्रुतता के कारण हैं जिनका कि उक्त गाथा में उल्लेख किया गया है। अब बहुश्रुतता के साधनों का उल्लेख करते हैं अह अट्ठहिं ठाणेहिं, सिक्खासीले त्ति वुच्चई । . अहस्सिरे सया दन्ते, न य मम्ममुदाहरे ॥ ४ ॥ अथाष्टभिः स्थानैः, शिक्षा शीलइत्युच्यते । अहसनशीलः सदा दान्तः, न च मर्मोदाहरः ॥ ४ ॥ पदार्थान्वयः—अह–अनन्तर, अट्ठहिं—आठ, ठाणेहिं स्थानों से विशेषताओं से, सिक्खासीले शिक्षाशील शिक्षा के योग्य, त्ति—इस प्रकार, वुच्चई–कहा जाता है, अहस्सिरे हास्य न करने वाला, सया दन्ते सदा दान्त–इन्द्रियों का दमन करने वाला, य—और, मम्मं—मर्म को, न उदाहरे—न कहने वाला। मूलार्थ-आठ स्थानों से अर्थात् आठ विशेषताओं से युक्त व्यक्ति शिक्षाशील अर्थात् शिक्षा के योग्य कहा जाता है। यथा—हास्य न करने वाला, इन्द्रियों का दमन करने वाला और दूसरों के मर्म को न कहने वाला। .. टीका तीर्थंकर भगवान् ने आठ विशेषताओं से युक्त जीवों को शिक्षाशील बनने के योग्य बताया है, जैसे कि हेतु के होने अथवा न होने पर जो किसी का उपहास नहीं करता है, वही शिक्षा के योग्य होता है, क्योंकि जिसका उपहास करने का स्वभाव होता है वह कदापि शिक्षा के योग्य नहीं हो सकता तथा पांच इन्द्रियों और छठे मन इनको जो वश में रखता है, अर्थात् इनका जिसने दमन किया है वही शिक्षा के योग्य होता है, कारण कि शिक्षा ग्रहण करने में ब्रह्मचर्य का सेवन और इन्द्रियों का दमन नितान्त आवश्यक माना गया है। किसी सतीर्थ के मर्म का उद्घाटन न करने वाला ही शिक्षा के योग्य हो सकता है। जो विद्यार्थी मर्मभेदी वचन कहता है, अर्थात् दूसरों के अन्तःकरण को दग्ध करने वाले वचनों का भाषण करता है वह शिक्षा के योग्य नहीं है। यदि किसी प्रकार से उसको शिक्षा की प्राप्ति हो भी जाए, तो वह शिक्षा उसके फलीभूत नहीं होती। इस प्रकार शास्त्रकार ने हास्यशील न होना, दान्तेन्द्रिय होना और मर्मभाषी न होना, ये तीन गुण शिक्षा-प्राप्ति के साधन रूप में वर्णन किए हैं। . अब शेष पांच कारणों का उल्लेख करते हैं नासीले न विसीले, न सिया अइलोलुए । अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीले त्ति वुच्चई ॥ ५ ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 381 | बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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