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________________ प्रस्तुत गाथा में यह भाव दिखाया गया है कि जो सद्विद्या से रहित होते हैं वे अहंकारी, लोभी, इन्द्रिय-वशवर्ती, असम्बद्ध- प्रलापी और अविनयी होते हैं, इसीलिए उन्हें अबहुश्रुत कहा जाता है जिनमें थोड़ा बहुत शास्त्रीय ज्ञान होने पर भी उक्त दुर्गुणों की सत्ता मौजूद है वे भी अबहुश्रुत ही हैं, अतः उक्त प्रकार के दुर्गुणों से रहित होना ही बहुश्रुत होने का लक्षण है। अब अबहुश्रुतता के हेतुओं के विषय में कहते हैं— अह पंचहिं ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लब्भई । थम्भा कोहा पमाएणं, रोगेणाऽऽलस्सएण य ॥ ३॥ अथ पंचभिः स्थानैः, यैः शिक्षा न लभ्यते । स्तंभात्क्रोधाप्रमादेन, रोगेणाऽऽलस्येन च ॥ ३ ॥ पदार्थान्वयः —– अह—– अथ, पंचहिं—पांच, ठाणेहिं स्थानों से, जेहिं जिनसे, सिक्खा - शिक्षा, न भई — नहीं मिलती, थम्भा - अहंकार से, कोहा — क्रोध से, पमाएणं — प्रमाद से, रोगेण रोग से, य— और, आलस्सएण - आलस्य से । मूलार्थ - इन पांच कारणों से शिक्षा की प्राप्ति नहीं होती, जैसे कि गर्व से, क्रोध से, प्रमाद से, रोग से और आलस्य से । टीका - ऊपर की गाथा में बताए हुए दुर्गुण बहुश्रुतता के विघातक क्यों है, अर्थात् उन दुर्गुणों की विद्यमानता में बहुश्रुतता क्यों नहीं होती, प्रस्तुत गाथा इसी विषय का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करती है। प्रस्तुत गाथा में यह भाव दिखलाया गया है कि निम्नलिखित पांच कारण शिक्षा-प्राप्ति के प्रतिबन्धक हैं, अर्थात् प्रतिबन्धक कारणों के रहते हुए ग्रहण - शिक्षा और आसेवन - शिक्षा की प्राप्ति नहीं हो सकती। वे प्रतिबन्धक कारण गर्व, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य ये पांच हैं। जैसे कि शिक्षा के अयोग्य होता है । (१) किसी विद्यार्थी को किसी बात का गर्व - अहंकार है तो वह भी (२) जो शिक्षित के होने पर भी क्रोध से वशीभूत हो जाता है वह शिक्षा के योग्य नहीं है । (३) तथा जो प्रमाद - मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा में लीन हो रहा है, वह भी शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता। (४) जिसका शरीर रोगी रहता है वह भी शिक्षा ग्रहण में समर्थ नहीं हो सकता । (५) जो आलस्य में पड़ा रहने वाला है उसे भी शिक्षा का प्राप्त होना दुर्लभ है। इसमें अहंकार और क्रोध तो विद्यार्थी की पात्रता को ही बिगाड़ देते हैं, तथा प्रमाद का बुरा प्रभाव तो आत्मा के ऊपर इनसे भी अधिक होता है, इससे आत्मा की ग्रहण - शक्ति सर्वथा विकृत हो जाती है। रोग से आत्मा की स्वाधीनता नष्ट हो जाती है और आलस्य उसको प्रमादी बना देता है । इस प्रकार ये पांचों ही समुदायरूप से व पृथक्-पृथक् रूप से विद्या- ग्रहण में प्रतिबन्धक हैं। इनके होने पर विद्यार्थी गुरु श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 380 / बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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