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पूर्व अनगार शब्द का उल्लेख किया गया है। तात्पर्य यह है कि प्रस्तुत प्रकरण में उसी भिक्षु का ग्रहण किया जाना चाहिए जो कि द्रव्य रूप से किसी प्रकार का भी घर-बार न रखता हो ।
संयोग- शब्द के साथ प्रयुक्त होने वाले 'विप्रमुक्त' शब्द से 'वि' और 'प्र' उपसर्ग का संयोग, अन्तःकरण से संयोगराहित्य – संयोगरहित होने का ज्ञापक है तथा अनुक्रम से सुनाने का तात्पर्य यह है कि बहुश्रुत और अबहुश्रुत किस प्रकार के होते हैं और उनके क्या-क्या लक्षण होते हैं, इत्यादि सबका स्वरूप सुनना चाहिए।
बहुश्रुत की क्रिया और उसके विनय आदि गुण किस प्रकार के होने चाहिएं, इसके बोधनार्थ आचार शब्द का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार इस गाथा में जितने पद दिए गए हैं वे सब सार्थक और प्रयोजन वाले हैं। बाह्य और आभ्यन्तर संयोगों का विवरण प्रथमाध्ययन की पहली गाथा के अर्थ में किया गया है ।
अब बहुश्रुत के स्वरूप को यथावत् समझाने के लिए प्रथम अबहुश्रुत के स्वरूप का वर्णन किया जाता है जिसके ज्ञान से विपरीत रूप में बहुश्रुत के गुण स्वतः ही समझ में आ जाएं। जे यावि होइ निव्विज्जे, थद्धे लुद्धे अणिग्गहे ! अभिक्खणं उल्लवई, अविणीए अबहुस्सु ॥ २ ॥ यश्चापि भवति निर्विद्यः, स्तब्धो लुब्धोऽनिग्रहः | अभीक्ष्णमुल्लपते, अविनीतोऽबहुश्रुतः ॥ २ ॥
पदार्थान्वयः – जे – जो कोई, निव्विज्जे-विद्या-रहित, होइ— होता है, यावि—अथवा विद्य सहित होता है, परन्तु जो, थद्धे – अहंकार - युक्त, लुद्धे – लोभी, अणिग्गहे – इन्द्रियों के निग्रह से रहित है और, अभिक्खणं - बार - बार, उल्लवई - बिना विचारे बोलता है, य— और, अविणीए— विनय-रहित है, वही, अबहुस्सुए — अबहुश्रुत है ।
मूलार्थ—जो तथाकथित साधक विद्या-रहित अथवा विद्या - सहित है, परन्तु अहंकारी, लोभी तथा इन्द्रियों के अधीन और बिना विचारे बार-बार बोलने वाला एवं विनय से रहित है, वही अबहुश्रुत होता है ।
टीका - जो पुरुष शास्त्र के बोध से रहित है, अथवा शास्त्रज्ञ है, परन्तु यदि वह अहंकार से युक्त है, रसादि में मूर्च्छित है, जिसकी इन्द्रियां वश में नहीं हैं, जो असम्बद्ध एवं अनर्गल भाषण करने वाला है और विनय-धर्म से पतित है— उसी को अबहुश्रुत कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जो विद्याहीन होते हैं, वे उक्त दुर्गुणों में प्रायः शीघ्र ही प्रविष्ट हो जाते हैं ।
मूल सूत्र में ‘अवि—अपि’ शब्द का इसलिए प्रयोग किया गया है कि कदाचित् शास्त्रज्ञ होकर भी कुछ व्यक्ति उक्त दुर्गुणों में प्रविष्ट हो जाते हैं उनको भी अबहुश्रुत ही समझना चाहिए, क्योंकि हुश्रुत होने पर भी वे उक्त दुर्गुणों के कारण बहुश्रुत के फल से वंचित ही रहते हैं ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 379 / बहुस्सुयपुज्जं एगारसं अज्झयणं