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________________ अह बहुस्सुयपुज्ज एगारसं अन्झयणं अथ बहुश्रुतपूजमेकादशममध्ययनम् दसवें अध्ययन में प्रमाद-रहित होने का उपदेश दिया गया है। इस उपदेश को विवेकशील आत्मा ही ग्रहण करते हैं और विवेक की उत्पत्ति का आधार बहुश्रुत की पूजा-सेवा पर अवलम्बित है, अतः इस अध्ययन में बहुश्रुत के युक्ति-संगत गुणों का ही वर्णन किया जाता है और इसीलिए इस अध्ययन का नाम 'बहुश्रुतपूजक अध्ययन' के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी आदिम गाथा इस प्रकार है संजोगा विप्पमुक्कस्स, अणगारस्स भिक्खुणो | आयारं पाउकरिस्सामि, आणुपुब्बिं सुणेह मे ॥ १॥ संयोगाद् विप्रमुक्तस्य, अनगारस्य भिक्षोः । ____ आचारं प्रादुःकरिष्यामि, आनुपूर्व्या शृणुत मे || १ || पदार्थान्वयः—संजोगा—संयोग से, विप्पमुक्कस्स-रहित, अणगारस्स—अनगार, भिक्खुणोभिक्षु के, आयारं—आचार को, पाउकरिस्सामि—प्रकट करूंगा, आणुपुब्बिं अनुक्रम से, सुणेह-सुनो, मे—मुझ से। ____ मूलार्थ मैं अब संयोग-रहित अनगार भिक्षु के आचार को प्रकट करूंगा, तुम उसको मुझ से क्रम-पूर्वक सुनो। टीका–शास्त्रकार कहते हैं कि जिस भिक्षु ने बाह्य और आभ्यन्तर के संयोगों को छोड़ दिया है और घर से भी रहित हो गया है, उसके आचार को अब मैं क्रम-पूर्वक प्रकट करूंगा, तुम सुनो। इस कथन से यह ध्वनित होता है कि बहुश्रुत के गुणों का यथावत् वर्णन तो किया नहीं जा सकता, परन्तु यथाशक्ति मैं उनके वर्णन करने का यत्न करूंगा, इसीलिए वर्तमान काल की क्रिया के स्थान पर भविष्यत्काल की क्रिया का प्रयोग किया गया है। भिक्षु शब्द से प्रथम जो अनगार शब्द दिया गया है उसका अभिप्राय यह है कि बहुत से तथाकथित त्यागी घर-बार रखते हुए भी भिक्षु कहलाते हैं, अतः उनके निराकरणार्थ यहां पर भिक्षु से श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 378 / बहुस्सुयपुज्ज एगारसं अज्झयणं .
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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