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________________ बुद्धे परिनिव्वुडे चरे, गामगए नगरे व संजए । सन्तीमग्गं च बूहए, समयं गोयम! मा पमायए ॥ ३६ ॥ बुद्धः परिनिर्वृतश्चरेः, ग्रामगतो नगरे वा संयतः । शान्तिमार्गञ्च बृंहयेः, समयं गौतम ! मा प्रमादीः || ३६ ॥ पदार्थान्वयः–बुद्धे–बुद्ध, परिनिव्वुडे — निवृत्त होकर – शान्त रूप होकर, चरे– संयम मार्ग में चले, गामगए — ग्राम में गया हुआ, व- अथवा, नगरे – नगर में, संजए— निरन्तर यत्न करके, सन्तीमग्गं—–शान्ति-मार्ग की, च- और, बूहए - वृद्धि कर, गोयम —– हे गौतम! समय - समय मात्र का भी, मा पमाय — प्रमाद मत करो । मूलार्थ — हे गौतम! प्रबुद्ध व शान्तरूप होकर संयम मार्ग में विचरण कर, पापों से निवृत्त होकर ग्राम वा नगर अथवा अरण्यादि स्थानों को प्राप्त होकर शान्ति मार्ग की वृद्धि कर, इस काम में हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो । टीका - इस गाथा में इस बात का उपदेश दिया गया है कि ग्राम और नगरादि में विचरण करते हुए साधु अपने संयम-मार्ग में दृढ़ होकर सर्वत्र शान्ति का उपदेश करे, अंतएव गौतम स्वामी को भगवान् कहते हैं कि हे गौतम! तत्त्व - वस्तु को जानकर और कषायरूप अग्नि से बचकर शान्तं स्वरूप होकर तू संयम मार्ग में विचरण कर । ग्राम अथवा नगरादि किसी स्थान में भी ठहरा हुआ तू शांति रूप में व्याप्त होकर तथा सर्व प्रकार के पापों से अलग होकर सर्वत्र शान्ति मार्ग की ही वृद्धि कर, अर्थात् सर्व भव्य जीवों को क्षमा-प्रधान धर्म का ही तू उपदेश कर, जिससे कि वे मोक्ष प्राप्ति के अधिकारी बन सकें । जिस प्रकार अति शीत गुण को धारण करता हुआ जल हिम / बर्फ के रूप को ग्रहण करता है, उसी प्रकार क्षमा-धर्म के अनुष्ठान से यह जीव परम शान्तिरूप निर्वाणपद को प्राप्त कर लेता है । इसीलिए मुमुक्षु पुरुष को इस कार्य के सम्पादन में सदा अप्रमत्त रहना चाहिए । भगवान् की यह शिक्षा प्रत्येक मुमुक्षु व्यक्ति के लिए समान है। भगवान के उपदेश को सुनने के अनन्तर गौतम स्वामी पर उसका जो प्रभाव हुआ, अथवा भगवान की उक्त शिक्षा का जो अन्तिम फल है अब उसका दिग्दर्शन गौतम मुनि के व्याज से करा हैं— बुद्धस्स निसम्म भासियं, सुकहियमट्ठ-पओवसोहियं । रागं दोसं च छिंदिया, सिद्धिगई गए गोयमे ॥ ३७ ॥ त्ति बेमि | इति दुमपत्तयं अज्झयणं समत्तं ॥ १० ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 376 / दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं.
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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