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________________ इस गाथा में भगवान ने गौतम स्वामी के संशय को दूर करने का प्रयत्न किया है, क्योंकि गौतम स्वामी चरमशरीरी हैं, इसलिए संसार समुद्र को पार करके अब उसके किनारे पर आ गए हैं, इसके बाद वे केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में जाएंगे। अन्य भव्य झीवों को भी उचित है कि वे इस दुर्लभ मनुष्य-जन्म को प्राप्त करके अप्रमत्त भाव में रहकर इस दुस्तर संसार समुद्र को पार करने का उद्योग करें। यही उक्त गाथा का फलितार्थ है। अप्रमाद का जो फल है अब उसके विषय में कहते हैं अकलेवरसेणि-मूसिया, सिद्धिं गोयम! लोयं गच्छसि । खेमं च सिवं अणुत्तरं, समयं गोयम! मा पमायए ॥३५॥ अकलेवरश्रेणिमुच्छ्रित्य, सिद्धिं गौतम! लोकं गच्छसि । क्षेमं च शिवमनुत्तरं, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ ३५ ॥ पदार्थान्वयः-अकलेवर—शरीर-रहित, सेणिं श्रेणि को, ऊसिया-ऊंची करके, गोयम हे गौतम! सिद्धिलोयं सिद्धलोक को तू, गच्छसि जाएगा, खेमं–क्षेम, च—और, सिवं—कल्याण रूप, अणुत्तरं सर्वोत्कृष्ट, समयं—समय मात्र का भी, गोयम हे गौतम!, मा पमायए—प्रमाद मत कर। . . . मूलार्थ हे गौतम! शरीर से रहित जो सिद्ध-श्रेणी है तू क्षपक-श्रेणी को ऊंची करके उपद्रव रहित, सर्वोत्कृष्ट कल्याण-रूप सिद्धलोक को प्राप्त होगा, अतः हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। ___टीका भगवान कहते हैं कि हे गौतम! जैसे सिद्धों की श्रेणी है, उसके समान पवित्र क्षपक श्रेणी को ऊंची करके तू सिद्धलोक में जाएगा। वह सिद्धलोक पर-चक्रादि उपद्रवों से रहित और सर्व दुरितों के उपशम के कारण कल्याण-स्वरूप, अतएव सर्वोत्कृष्ट है, अतः उसमें जाने के लिए तू किंचित् मात्र भी प्रमाद मत कर। इस गाथा में इस भाव को व्यक्त किया गया है कि जैसे शरीर-रहित सिद्धों की श्रेणी है, उसी के समान जब यह आत्मा क्षपक-श्रेणी पर आरूढ़ होता है, तब उसके भाव-संयम में विशिष्ट शुद्धि होती है। जैसे सिद्धों की श्रेणी ऊंची है, उसी प्रकार क्षपक-श्रेणी को ऊंची करके यह जीव सिद्धलोक को चला जाता है तथा वह सिद्धलोक स्वचक्र और परचक्रादि भयों से रहित (सर्व-पापों का उपशम होने के कारण) परम कल्याणरूप और सर्वोत्कृष्ट है। यहां पर 'व्यत्ययश्च' इस सूत्र के द्वारा 'गच्छसि' यह वर्तमान कालिक क्रिया 'गमिष्यसि' रूप में भविष्य के अर्थ में प्रयुक्त हुई है। - अब उक्त अध्याय का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार सबके हित के लिए कुछ विशेष जानने योग्य बातें कहते हैं श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 375 / दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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