SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लगा । इसी प्रकार जिन पुरुषों ने युवावस्था में संयमरूप भार को उठाया हुआ है और वृद्धावस्था के आने पर जब शरीर निर्बल हो जाता है तो किसी परीषह - कष्ट के सम्मुख आने से वे संयम के भार को छोड़ बैठते हैं और उस निर्धन पुरुष के समान वे भी पश्चात्ताप करने लगते हैं । भगवान् कहते हैं कि हे गौतम! तू इस प्रकार का आचरण मत कर बैठना । गौतम स्वामी चरमशरीरी — तद्भव - मोक्षगामी भव्यात्मा हैं, अतः वे ऐसे कदापि नहीं हो सकतें, किन्तु अन्य शिष्यों को प्रतिबोध देने के लिए ही ऐसा कहा गया है और उसके साथ इस बात की भी शिक्षा दी गई है कि यदि किसी कारण से संयम - वृत्ति में अरुचि उत्पन्न हो जाए तो भी संयम के त्याग करने के भाव तो कदापि मन में न लाना चाहिए, अपितु सम्मुख आए हुए कष्टों को धीरतापूर्वक सह करना चाहिए और मन में यह विचार करना चाहिए कि यह जो कष्ट मुझे इस समय प्राप्त हुआ है, वह सदा या चिरकाल तक रहने वाला नहीं है तथा यह पूर्वकृत अशुभ कर्म का विपाक है, इसलिए इसको धैर्य-पूर्वक सहन करना ही मेरा परम धर्म है । गजसुकुमार आदि को इन्हीं उच्च भावों ने केवलज्ञान से विभूषित किया था । भगवान् के इस प्रकार के उपदेश को सुनकर गौतम स्वामी के चित्त में संशय उत्पन्न हुआ कि- 'मैंने संसार - समुद्र को पार कर भी लिया है या कि नहीं ?' गौतम के इस मानसिक सन्देह को कर उसे दूर करने के लिए भगवान् कहते हैं - तिणो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ ? । अभितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम ! मा पमाय || ३४॥ तीर्णोऽसि खलु अर्णवं महान्तं, किं पुनस्तिष्ठसि तीरमागतः ? | अभित्वरस्व पारं गन्तुं समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ ३४ ॥ पदार्थान्वयः – तिणो सि– तू तर गया है, हु— निश्चय ही, अण्णवं — संसार - समुद्र को — जो, महं बड़ा है ! किं पुण - फिर क्यों तू, चिट्ठसि — खड़ा है, तीरं तीर के पास, आगओ आया हुआ, पारं— पार, गमित्तए – जाने को, अभितुर - शीघ्रता कर, समयं - समग्र मात्र का भी, गोयम — हे गौतम ! मा पमायए – प्रमाद मत कर । मूलार्थ गौतम ! तू अति विस्तृत संसार - समुद्र को तैर गया है, फिर तू तीर को प्राप्त होकर भी अब क्यों खड़ा है ? पार जाने के लिए शीघ्रता कर और इस विषय में समय मात्र का भी प्रमाद मत करो । टीका - भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! यह मनुष्यादि चारों गतिवाला अति विस्तृत जो संसारसमुद्र है, इसको तू तैर गया है, तू अब इसके किनारे को प्राप्त होकर क्यों खड़ा है ? तात्पर्य यह है कि शुभाशुभ कर्म जन्म-मरण रूप संसार - समुद्र को तैर कर अब तू उदास क्यों हो रहा है ? अब तो इसके सर्वथा पार जाने के लिए शीघ्रता कर, अर्थात् संसार - समुद्र का तीर जो मोक्ष है उसको प्राप्त करने के लिए अब तू शीघ्र तैयारी कर । एतदर्थ किंचिन्मात्र भी प्रमाद का सेवन मत करो । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 374 / दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy