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________________ दोबारा उनके संग अथवा प्राप्ति की गवेषणाा नहीं करनी चाहिए, अतएव इसके लिए तुम लेशमात्र का भी प्रमाद मत करो। टीका इस गाथा में त्यागे हुए मित्र, बन्धु और धन-समूह को पुनः प्राप्त करने के प्रयत्न का निषेध किया गया है, अर्थात् जब हेय समझकर एक बार इनका परित्याग कर दिया तो फिर दूसरी बार उनको प्राप्त करने की जघन्य लालसा करना किसी प्रकार से भी उचित नहीं है। कारण कि इस प्रकार की जघन्य लालसा आत्मा को सर्वथा अधःपतन की ओर ले जाने वाली होती है, अतः इस त्यागवृत्ति को दृढ़ रखने के लिए मुमुक्षु जनों को सदा ही अप्रमत्त रहना चाहिए। इस गाथा में समूहवाची 'ओह-औघ' शब्द का धन के साथ इसलिए प्रयोग किया गया है कि संसार में रहने वाला प्रत्येक प्राणी धन का अधिक से अधिक संग्रह करने का इच्छुक रहता है। बान्धव शब्द समस्त स्त्री आदि पारिवारिक जनों का बोधक है। अब शास्त्रकार दर्शन-शुद्धि के विषय में कहते हैं न हु जिणे अज्ज दिस्सई, बहुमए दिस्सइ मग्गदेसिए । संपइ नेयाउए पहे, समयं गोयम! मा पमायए ॥ ३१ ॥ ___न हु. जिनोऽद्य दृश्यते, बहुमतो दृश्यते मार्गदेशितः । सम्प्रति नैय्यायिके पथि, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ ३१ ॥ पदार्थान्वयः-न-नहीं, हु–निश्चय ही, अज्ज-आज, जिणे-जिन भगवान्, दिस्सई–देखा जाता है, बहुमए—बहुत से मत, दिस्सइ—देखे जाते हैं, मग्गदेसिए—मार्ग-दर्शक, संपइ–वर्तमान काल में, नेयाउए-न्याययुक्त, पहे—मार्ग में, समयं—समय मांत्र भी, गोयम हे गौतम! मा पमायए—प्रमाद मत करो। . . . मूलार्थ (आगामी काल में निश्चय ही भव्य जीव इस प्रकार कहेंगे कि) निश्चय ही आजकल जिन भगवान् दृष्टिगोचर नहीं होते, किन्तु वर्तमान में न्याय-युक्त मार्ग में जिन भगवान् का बहुनयात्मक मत देखा जाता है, अतः हे गौतम! तू समये मात्र का भी प्रमाद मत कर। - टीका-भगवान् कहते हैं कि हे गौतम! मेरे पीछे भव्य आत्मा अनुमान प्रमाण के द्वारा धर्म में दृढ़ धारणा करते हुए इस प्रकार के निश्चय पर आएंगे कि वास्तव में आजकल तीर्थंकर भगवान् देखे तो नहीं जाते, परन्तु मुक्ति-मार्ग के दिखाने वाला उनका प्रतिपादन किया हुआ बहु-नयात्मक सिद्धान्त अवश्य दृष्टिगोचर होता है, क्योंकि इस प्रकार का न्याय-युक्त मार्ग वर्तमान काल में अन्यत्र कहीं पर नहीं है तथा उक्तमार्ग सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप होने के अतिरिक्त नैगम, संग्रह, व्यवहार ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत इन सात नयों से युक्त और स्याद्वाद रूप है। इसलिए यह मोक्ष का सरल और स्पष्ट मार्ग है। इस प्रकार के विचार से भव्य जीव साधु-धर्म व गृहस्थ-धर्म में स्थिर रहेंगे। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 371 । दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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