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________________ यहां पर इतना और स्मरण रखना चाहिए कि जैन-दर्शन में अनेकान्तिक दृष्टि को सम्यग्दर्शन कहा गया है, अर्थात् अनेक विध सद्वृष्टियों का सापेक्ष समुच्चय ही पदार्थ के यथार्थ निश्चय की कुंजी है। इसके विपरीत निरपेक्ष एकान्त दृष्टि को पदार्थ के निर्णयात्मक ज्ञान में अपूर्ण एवं दोषपूर्ण माना गया है। इस विषय का विशद विवेचन अन्यत्र किया जाएगा। इसलिए इस समय अर्थात् मेरे विद्यमान होते हुए तू उक्त न्यायमार्ग के अनुसरण में किसी प्रकार का भी प्रमाद मत कर | भगवान् कहते हैं कि गौतम! इस समय तक यद्यपि तुझे केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है, तथापि मेरी विद्यमानता से तेरे सारे ही सन्देह दूर हो सकते हैं और मुक्ति का लाभ भी तुझे अवश्य मिल सकता है। अथवा यूं समझिए कि हे गौतम! इस समय तू केवली नहीं है, इसलिए मेरे कथन किए हुए इस न्याय-युक्ति बहुनयात्मक मार्ग पर चलने में प्रमाद मत कर तथा मेरे पर तेरा जो अधिक स्नेह है, वह मोक्ष का प्रतिबन्धक है, इसीलिए तेरे को अभी तक केवलज्ञान नहीं हुआ है। मेरे बाद इस स्नेह-बन्धन के टूटते ही तेरे को अवश्य केवलज्ञान प्राप्त होगा। मेरे इस कथन पर पूर्ण विश्वास करता हुआ तू प्रमाद से सर्वथा दूर रहने का यत्न कर । अब इसी सम्बन्ध में कुछ और जानने योग्य विषय का वर्णन करते हैं, यथा अवसोहिय कंटगापहं, ओइण्णोऽसि पहं महालयं । गच्छसि मग्गं विसोहिया, समयं गोयम! मा पमायए ॥ ३२ ॥ अवशोध्य कंटकपथं, अवतीर्णोऽसि पन्थानं महालयम। गच्छसि मार्ग विशोध्य, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥३२॥ पदार्थान्वयः—अवसोहिय—दूर करके, कंटगापहं—कण्टकयुक्त मार्ग को, ओइण्णोऽसिप्रविष्ट हो गया है तू, महालयं—बड़े विस्तार वाले, पहं—भाव-मार्ग में, मग्गं—मार्ग को, विसोहिया–शुद्ध करके, गच्छसि-तू जाता है, समय-समय मात्र का भी, गोयम हे गौतम! मा पमायए—प्रमाद मत करो। मूलार्थ हे गौतम! कण्टक-युक्त मार्ग को साफ करके अब तू मुक्ति के राज मार्ग में प्रविष्ट हो गया है, इतना ही नहीं किन्तु निर्णय-पूर्वक उस मार्ग में तू जा रहा है। अतः समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। टीका—इस गाथा में भगवान् ने कण्टक-युक्त मार्ग का परित्याग करके विशुद्ध राजमार्ग में चलने का उपदेश दिया है। मार्ग भी द्रव्य-भाव-भेद से दो प्रकार का होता है—एक द्रव्य-मार्ग, दूसरा भाव-मार्ग। द्रव्य-मार्ग तो कंटकादि से आकीर्ण मार्ग प्रसिद्ध ही है और भाव-मार्ग चार्वाकादिक निर्दिष्ट सिद्धान्तरूप कुमार्ग है। इनमें प्रथम पर चलने से तो शारीरिक व्यथा होती है और दूसरा मार्ग भवान्तर में दुखप्रद है। अतः उक्त दोनों कुमार्गों का परित्याग करके सम्यग्-दर्शनादि रूप निष्कंटक और सरल श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 372 | दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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