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________________ अब त्याग वृत्ति को दृढ़ करने के लिए पुनः शिक्षा देते हैं— चिच्चा णं धणं च भारियं पव्वइओ हि सि अणगारियं । मा वंतं पुणो वि आविए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ २६ ॥ त्यक्त्वा खलु धनं च भार्यां प्रव्रजितो ह्यस्यनगारिताम् । मा वान्तं पुनरप्यापिव, समयं गौतम ! मा प्रमादीः || २६॥ पदार्थान्वयः – चिच्चा — छोड़कर, धणं-धन, च- और, भारियं भार्या को, हि —– जिससे अणगारियं—अनगारपन को पव्वइओ हि सि—– तू प्रव्रजित हो गया है, वंतं - वमन को, पुणो वि- फिर भी तू, मा आविए — मत पी, समयं - समय मात्र का भी, गोयम — हे गौतम! मा पमायए— प्रमाद मत कर, णं - (वाक्यालंकार में) । मूलार्थ — हे गौतम! तू धन और भार्या आदि को छोड़कर अनगार भाव को प्राप्त हुआ है, अर्थात् दीक्षित हो गया है। अब इस वमन किए हुए को फिर तू मत ग्रहण कर, अतः इस कार्य में समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । टीका - प्रस्तुत गाथा में इस बात की शिक्षा दी गई है कि धन, धान्य और स्त्री -पुत्र आदि को त्याग कर प्रव्रज्या अर्थात् संन्यास ग्रहण करने वाले मुमुक्षु जनों को उचित है कि इन त्यागे हुए पदार्थों को फिर कभी भी स्वीकार न करें। जैसे वमन किए हुए पदार्थ को फिर से कोई भी मनुष्य ग्रहण नहीं करता, उसी प्रकार इन धन- कलत्रादि पदार्थों को वमन के तुल्य समझकर इनका सदा त्याग ही रखना चाहिए, अर्थात् इनको फिर से ग्रहण करने का कभी विचार भी न करना चाहिए । तथा 'पव्वइओ हि सि’— ' प्रव्रजितो ह्यसि ' - वाक्य में 'असि' इस मध्यम पुरुष की एक वचन की क्रिया में प्राकृत के नियम से 'अकार' का लोप हो गया है और 'हि' यह अव्यय 'यस्मात् ' के अर्थ युक्त हुआ है तथा धन शब्द से चतुष्पदादि सर्व प्रकार के धन का ग्रहण समझना चाहिए । अवउज्झिय मित्तबन्धवं, विउलं चेव धणोहसंचयं । मा तं बिइयं गवेसए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ ३० ॥ अपोह्य मित्र- बान्धवं विपुलं चैव धनौघसंचयम् । मा तद् द्वितीयं गवेषय, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ ३० ॥ पदार्थान्वयः– अवउज्झिय –—–— त्यागकर, मित्त- बन्धवं - मित्र और बांधवों को, विउलं — विपुल, चेव—(पादपूर्णार्थ में), धणोह – धन राशि के, संचयं — संचय की, बिइयं —– दूसरी बार, तंत्राद को, मा— मत, गवेस – गवेषणा कर, समयं – समय मात्र भी, गोयम — हे गौतम! मा पमायए – प्रमाद मत करो । मूलार्थ - हे गौतम! मित्र - बन्धु और संचित किए हुए धन -समूह का परित्याग करके तुम्हें अब श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 370 / दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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