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अब तो केवल चारित्र-धर्म की ही तुमको आवश्यकता है, इसलिए किसी समय भी प्रमाद का सेवन मत करो।
प्रमाद के परित्याग का जो प्रकार है, अब उसके विषय में कहते हैं— वोच्छिंद सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं । से सव्वसिणेहवज्जिए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ २८ ॥ व्युच्छिन्धि स्नेहमात्मनः, कुमुदं शारदमिव पानीयम् | तत्सर्व-स्नेह-वर्जितः, समयं गौतम! मा प्रमादीः || २८ ॥
पदार्थान्वयः– सिणेहं—स्नेह - राग, अप्पणो – अपना, वोच्छिंद— दूर कर, कुमुयं सारइयं व पाणियं—चन्द्र विकासी कमल अर्थात् कुमुद का फूल (शरद् ऋतु के) जल को छोड़कर जैसे (अलग हो जाता है), से—अनंतर, सव्व - सब, सिणेहवज्जिए— स्नेह से रहित होकर, समयं समय मात्र का भी, गोयम — हे गौतम! मा पमायए - प्रमाद मत करो ।
मूलार्थ — हे गौतम! जैसे कुमुद का फूल शरद् ऋतु के पानी को छोड़कर अलग हो जाता है प्रकार तू भी अपना स्नेह दूर कर तथा स्नेह से सर्वथा अलग हो जा, इस कार्य में समय मात्र का भी
प्रमाद मत कर ।
टीका — गौतम स्वामी से भगवान् कहते हैं कि हे गौतम! तुम्हारा मेरे ऊपर जो स्नेह - राग है उसको दूर कर, अर्थात् जैसे शरदऋतु में उत्पन्न होने वाला चन्द्रविकासी कमल, अर्थात् कुमुद का फूल कीचड़ से उत्पन्न होकर और जल के द्वारा वृद्धि पाकर भी उससे ही पृथक् रहता है, उसी प्रकार तू भी मेरे ऊपर रहे हुए स्नेह को दूर करके कमल की भांति पृथक् रहने का यत्न कर। इस प्रकार स्नेह को दूर करके अर्थात् सर्वथा राग - रहित होकर तू केवलज्ञान को प्राप्त कर लेगा । इसलिए प्रस्तुत कार्य के सम्पादन में तू समय मात्र भी प्रमाद का सेवन मत कर ।
उक्त गाथा में शरद् ऋतु के कमल की जो उपमा दी गई है उसका आशय यह है कि शरद् ऋतु का जल अंत्यन्त शीतल, निर्मल और मनोहर होता है, परन्तु कमल उससे भी पृथक् रहता है, अर्थात् उसमें लिप्त नहीं होता। उसी प्रकार तुम्हारा स्नेह भी अत्यन्त निर्मल होने से धर्म-राग है, परन्तु उस प्रशस्त राग का भी तेरे को परित्याग कर देना चाहिए, क्योंकि प्रशस्त राग भी पुण्य-बन्ध का कारण होने से मुमुक्षु पुरुष के लिए त्याग करने योग्य है । इसलिए सर्व प्रकार के स्नेह से रहित होने के लिए तेरे को सदैव अप्रमत्त अर्थात् प्रमाद - रहित होना चाहिए ।
इस कथन का सारांश यह है कि धर्मराग व धर्म-सम्बन्ध होने पर भी स्नेह-राग न करना चाहिए, क्योंकि यह स्नेह-राग पुण्यबन्ध का कारण होने से मोक्ष का प्रतिबन्धक होता है। तात्पर्य यह है कि धर्म-सम्बन्ध भले ही हो, परन्तु स्नेहभाव नहीं होना चाहिए । इस कथन से भगवान् महावीर स्वामी की वीतरागता भी स्वतः ही प्रत्यक्ष हो जाती है ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 369 / दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं