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उपदेश गौतम को लक्ष्य में रखकर प्राणिमात्र के लिए है, यह बात ऊपर अनेक बार दोहराई जा चुकी .
उक्त गाथाओं में जरा-अवस्था के द्वारा शरीर की निर्बलता का वर्णन किया गया है, अब निम्न गाथा में रोगों के द्वारा शरीर की निर्बलता का वर्णन करते हैं
अरई गंडं विसइया, आयंका विविहा फुसंति ते । विहडइ विद्धंसइ ते सरीरयं, समयं गोयम! मा पमायए ॥२७॥
अरतिगण्डं विषूचिका, आतंका विविधाः स्पृशन्ति ते ।
विघटते विध्वंसति ते शरीरकं, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ २७ ॥ पदार्थान्वयः—अरई चित्त का उद्वेग, गंडं—स्फोटक—फोड़े आदि, विसूइया विषूचिका, विविहा—नाना प्रकार के, आयंका रोग, ते तेरे शरीर को, फुसंति—स्पर्श कर रहे हैं, विहडइ तेरा शरीर गिर रहा है, विद्धंसइ–नष्ट हो रहा है, ते तेरा, सरीरयं—शरीर, गोयम हे गौतम! समयं—समय मात्र का भी, मा पमायए—प्रमाद मत करो।
मूलार्थ चिन्ता, विस्फोटक—फोड़े आदि और विषूचिका अर्थात् हैजा आदि नाना विध रोग तेरे शरीर को स्पर्श कर रहे हैं, जिससे तेरा शरीर गिरता जा रहा है और नष्ट हो रहा है, इसलिए हे गौतम! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। ____टीका पूर्व गाथाओं में वृद्धावस्था के द्वारा शरीर की निर्बलता का वर्णन किया जा रहा था, . अब रोगादि के द्वारा शरीर की जो दशा हो जाती है उसका दिग्दर्शन प्रस्तुत गाथा में कराया गया है। भगवान् कहते हैं कि हे गौतम! तेरे शरीर को नाना प्रकार के रोग घेरे हुए हैं, जैसे कि चौरासी प्रकार के वायु के प्रकोपों से चित्त का उद्वेग, रुधिर-प्रकोप से स्फोटक अर्थात् फोड़े-फुन्सियां आदि, अजीर्ण की वृद्धि से विषूचिका (हैजा)—जो वमन और विरेचन को साथ लिए हुए होता है और सद्यःप्राणहर शूलादिरोग आदि रोगों के आक्रमण से तेरा शरीर अत्यन्त निर्बल हो रहा है और जीवनी-शक्ति से भी रहित होता जा रहा है, इसलिए जब तक किसी भयंकर रोग का आक्रमण नहीं होता, उससे पूर्व ही तुझे पूरी सावधानी से धर्म-कार्यों में लगे रहना चाहिए, क्योंकि रोगों के आक्रमण से यह शरीर किसी भी कार्य के सम्पादन में समर्थ नहीं रह जाता।
यहां पर इस बात की अनेक बार चर्चा की गई है कि गौतम के माध्यम से भगवान् ने सभी प्राणियों को शारीरिक दुर्बलता आदि का उपदेश दिया है, क्योंकि पूज्य गौतम मुनि में उक्त इन्द्रिय वैकल्य और जरा-रोगादि का होना सम्भव ही नहीं है। (तथा च वृत्तिकारः 'केशपाण्डुरत्वादिकं यद्यपि गौतमे न सम्भवति, तथापि तन्निश्रय्या शेषशिष्यप्रतिबोधनार्थत्वादुपदिष्टम्' इति।') ।
भगवान् ने इसी बात का पुनः-पुनः उपदेश दिया है कि हे भव्य जीवो! तुम्हें इस समय किसी प्रकार से भी प्रमाद करना योग्य नहीं है, क्योंकि जो दुर्लभ मनुष्य-जन्म था वह तुमको प्राप्त हो गया है,
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 368 /
दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं