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________________ पदार्थान्वयः—परिजूरइ–सर्वथा जीर्ण हो रहा है, ते तेरा, सरीरयं—शरीर, केसा—केश, पंडुरया-श्वेत, हवंति—हो गए हैं, य—और, से—वह, ते-तेरा, फासबले स्पर्शनेन्द्रिय का बल, हायई क्षीण हो रहा है, समय-समय मात्र का भी, गोयम हे गौतम!, मा पमायए—प्रमाद मत करो। ___ मूलार्थ हे गौतम! तेरा शरीर सर्व प्रकार से जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो गए हैं और स्पर्शनेन्द्रिय अर्थात् त्वचा का बल भी क्षीण हो रहा है, अतः तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । टीका—इस गाथा में इस भाव को व्यक्त किया गया है कि शरीर का बल जैसा युवावस्था में होता है वैसा वृद्धावस्था का आगमन होने पर नहीं रह जाता तथा रोगादि के होने पर भी वह बल क्षीण हो जाता है, इसलिए जब तक यह शरीर बलवान् है, तब तक ही धर्म का सम्यक् रूप से आराधन किया जा सकता है, परन्तु इसके निर्बल अथवा पराधीन होने पर कोई भी लौकिक अथवा पारलौकिक कार्य नहीं हो सकता। फिर यह शरीर क्षण-भंगुर है, इसके नाश होने में कोई देरी नहीं लगती। इसलिए जहां तक हो सके इस शरीर के द्वारा परोपकार आदि धर्म-कार्यों में कदापि प्रमाद नहीं करना चाहिए। उक्त प्रकार से इन्द्रियों की निर्बलता का वर्णन करने के बाद अब सर्व शरीर की निर्बलता के विषय का उल्लेख करते हैं. परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते । से सव्वबले य हायई, समयं गोयम! मा पमायए ॥२६॥ परिजीर्यति ते शरीरकं, केशाः पाण्डुरका भवन्ति ते । तत् सर्वबलं च हीयते, समयं गौतम! मा प्रमादीः ॥ २६॥ पदार्थान्वयः–परिजूरइ–सब प्रकार से जीर्ण हो रहा है, ते तेरा, सरीरयं—शरीर, य—और, ते तेरे, केसा—केश, पंडुरया—सफेद, हवंति–हो गए हैं, से—वह, सव्व—सब, बले—बल, हायई-हीन हो गया है, गोयम हे गौतम! समयं—समय मात्र का भी, मा पमायए-प्रमाद मत करो। मूलार्थ हे गौतम! तेरा शरीर सर्व प्रकार से जीर्ण हो रहा है, तेरे केश सफेद हो गए हैं और सारे शरीर का बल क्षीण होता जा रहा है, इसलिए तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। टीकावृद्धावस्था में शरीर के सारे ही अवयव निर्बल हो जाते हैं। जैसे उष्णकाल में गर्मी के अधिकता से शरीर के रोमकूपों में से स्वेद-पसीना निकलने लग जाता है, उसी प्रकार वृद्धा अवस्था के आगमन पर शरीर की समस्त शक्तियां शरीर से निकलने लग जाती हैं—समाप्त होने लगती हैं, इसलिए जब तक वृद्धावस्था का आगमन नहीं होता तब तक अप्रमत्त भाव से धर्म का आराधन करना चाहिए, जिससे कि पुण्य-संयोग से प्राप्त हुआ यह मनुष्य-जन्म सार्थक हो सके। भगवान् का यह श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 367 | दुमपत्तयं दसमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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